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स्वरूप चेतन-सत्ता को आकुलता प्रदान करने के लिए उस गैस में क्षमता का होना।
(४) प्रकृति-बन्ध-जीव के शुभाशुभ भाव-रस की विविधता और तारतम्य के अनुरूप चैतन्य-प्रदेश में मोह आदि विभावों का आविर्भाव और ज्ञान आदि स्वभावों का तिरोभाव कराने वाली उस गैस की क्षमता में स्वभाव-वैचित्र्य का होना।
प्रकृति-बन्ध के स्थूल-रूप में मूल भेद ८ और अन्तर भेद १४८ किंवा १५८ हैं । जबकि सूक्ष्म-रूप में वह अनन्त प्रकार का है । प्रकृतिबन्ध के मूल आठ भेदों में से क्रमशः ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय
और अन्तराय ये चारों घाती एवं वेदनीय, नाम, गोत्र और आयु ये चारों अघाती कहलाते हैं। घाती कर्म आत्मा के ज्ञान आदि अनुजीवी गुणों को तिरोहित करते हैं, जबकि अघातीकर्म अव्याबाघ आदि प्रतिजीवी गुणों को । आत्मा के अस्ति-रूप गुणों को अनुजीवी और नास्तिरूप गुणों को प्रतिजीवी कहते हैं।
चैतन्य-प्रदेश में कर्म-बादल के रूप में कार्मण्य गैस की सदवस्था को कर्म-सत्ता, स्थिति की परिपक्व दशा में होने वाले उसके विस्फोट को कर्म उदय और अपरिपक्व दशा में होनहार विस्फोट को कर्म उदीरणा कहते हैं। कर्म-सत्ता में जिस समय में जिस गैस-अणुसमुदाय का जितने परिमाण में विस्फोट होता है, उस समय उतने ही परिमाण में वह गैस-अणु-समुदाय चेतन सत्ता से अलग होकर बिखर जाता है।
इसी प्रकार कार्मण्य-गैस-अगु-समुदाय का बन्ध और विस्फोट, चेतन की शुभाशुभ कल्पना की निरन्तरता के कारण चैतन्य-प्रदेश में निरन्तर हुआ करता है, फलतः चेतन भी इसी कर्म-धारा में निरन्तर बहता हुआ संसार सागर में गोता खा रहा है।
३. चेतन इस कर्म-धारा के संतति प्रवाह में न जाने कब से बह रहा है, इसका कोई पता ही नहीं है जैसे खदान में सुवर्ण और पत्थर
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