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श्री पद्मप्रभ जिन स्तवन (राग-मारु तथा सिन्धु : चाँदलिया संदेशोकहिजे म्हारा कंतने रे, एदेशी)
पदमप्रभु जिन तुज मुझ आंतरौ, किम भांजै भगवन्त । करम विपाके कारण जोइने, कोई कहै मतिवन्त ॥ पदम० ॥१॥
पयइ ठिई अणुभाग प्रदेशथी, मूल उत्तर बहु भेद । घाती अघाती बंधोदयोदोरणा, सत्ता करम विछेद ॥ पदम० ॥२॥
कनकोपलवत पयडी पुरुष तणी, जोड़ि अनादि सुभाय । अन्य संजोगी जहँ लगी आतमा, संसारी कहवाय ॥ पदम० ॥३॥
कारण जोगे बांधे बंधने, कारण मुगति मुकाय । आश्रव संवर नाम अनुक्रमे, हेयोपादेय सुणाय ॥ पदम० ॥४॥
जुजन करणे अंतर तुझ पड्यो, गुण करणे करि भंग। ग्रन्थ उक्ति करि पंडित जन कह्यो, अन्तर भंग सुअंग ॥ पदम० ॥५॥
तुझ मुझ अन्तर अन्तए भांजसे, बाजस्यै मंगल तूर । जीव सरोवर अतिशय वाधिस्ये, 'आनन्दघन' रस पूर । पदम० ॥६॥
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