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स्वरूप आत्म-भावना की निष्ठात्मक आराधना-पद्धति के क्रमिक विकास से आत्म भ्रान्ति सर्वथा मिट जाती है जो कि केवल मति का ही दोष है। भ्रांति के मिटने पर क्रमशः आत्म प्रतीति, आत्म लक्ष और आत्मानुभूति की अखण्डता सधने पर अनन्त दर्शन अनन्त ज्ञान, अनन्त समाधि, अनन्त वीर्य आदि समस्त आत्म वैभव युक्त, परमात्म पदमोक्ष पद की प्राप्ति होती है कि जहाँ चैतन्य रस के सघन आनन्द का ही केवल पोषण है।
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