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स्वभाव को नाश करने वाला 'आत्मघाती' एवं जन्म मरण रूप पापभूमि का पोषक आत्मा ही बहिरात्मा है। और जो इस बहिरात्मदशा को मिटाकर उपरोक्त शरीर आदि का साक्षी मात्र हो, उनमें फैली हुई अपनी चेतना को लौटाकर उसे अन्तमुख प्रवाह से आत्म प्रतीति, आत्मलक्ष किंवा आत्मानुभूति-धारा के रूप में अपने चेतन तत्त्व में समा रहा हो--वह आत्मा अन्तरात्म-स्वरूप है।
४. जो स्वाधीन ज्ञान और आनन्द से परिपूर्ण हो, राग आदि समस्त उपाधि भावों से परिमुक्त होने से पवित्र चरित्रवान् एवं सकल कर्म क्षय हो जाने के कारण जिनके अनन्त अतीन्द्रिय गुण मणियों से भरे हुये क्षायिक नव-निधान प्रकट हो चुके हों-वह आत्मा ही परमात्मा है।
इस प्रकार आत्मा की जो ये तीनों अवस्थायें बताई, उनमें से तीसरी परमात्म-दशा ही साधक आत्मा का साध्य है। जिसकी सिद्धि के लिए आत्म समर्पण का दाँव लगा देना साधक के लिए नितान्त आवश्यक है।
५. आत्म समर्पण का दाँव लगाने की विधि निम्न प्रकार है :
प्रथम सत्संग द्वारा उपर बताये लक्षणों से तीनों ही अवस्था युक्त आत्मा की समझ को सही कर लेना चाहिए। बाद में बहिरात्मदशा का सर्वथा परित्याग करके चैतन्य भावों की अन्तरात्मा के रूप में स्थिरता कर लेनी चाहिए। उस स्थिति में परमात्म-दशा के एकाग्र ध्यान पूर्वक शुद्ध आत्म-भावना की निष्ठा द्वारा आत्मा को सतत प्रभावित करते रहना, यही आत्म समर्पण का दांव लगाना है। जिस दाँव के लगाने पर आत्मा में ही परमात्म-दशा का अभेद अनुभव रूप आत्म-साक्षात्कार होता है।
६. इस तरह इस आत्म समर्पण नामक तत्त्व विचार के फल २२]
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