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________________ क्रम-क्रम से व्यक्त कार्यान्वित होते रहना-यही आदान को कारणता प्रदान करके उसे उपादान-कारण बनाना है। फलतः उपादान कारण ही बदलता हुआ उपादेय कार्य-रूप में सिद्ध होता है । कर्तव्य-क्षेत्र में कारण जितने पुष्ट हों, उतना ही पुष्ट कार्य होता है। अतः पुष्टि निमित्त-कारण के रूप में भगवान सुमतिनाथ के चरणकमलों में आत्म समर्पण करके परिसर्पण करना अर्थात् मार्ग-दर्शक के पद-चिन्हों के सहारे सर्वथा उनके पीछे-पीछे चलते रहना, यही साधनापथ में पथिक के लिए अनिवार्य है। __ मुमुक्ष-हे ज्ञानावतार ! आपने जो भी फरमाया, वह अक्षरशः मेरे दिल में जम गया; कृपया अब आत्म समर्पण का स्वरूप और विधि का रहस्य बताइये। २. बाबा आनन्दघन-परमार्थतः विश्व में सभी देहधारियों का आत्म-द्रव्य यद्यपि एक-सा है, फिर भी व्यवहार से उसकी तीन अवस्थायें देखने में आती है। जिनमें से प्रथम अवस्था को बहिरात्मा, दूसरी को अन्तरात्मा और तीसरी को परमात्मा कहते हैं, जो कि आत्मा में मोह और क्षोभ के परिपूर्ण-रूप में होने से, न्यूनाधिक्य-रूप में होने से एवं सर्वथा न होने से होती है। उनमें से प्रथम को दोनों अवस्थाएँ मोह और क्षोभ रूप उपाधि को सर्वथा मिटाने पर मिट सकती है, किन्तु तीसरी परमात्मदशा मोह-क्षोभातीत होने से अमिट है। ३. आत्म विस्मरण पूर्वक जिसकी चेतना शरीर आदि नोकर्म, ज्ञानावरण आदि द्रव्य-कर्म, राग-द्वष-अज्ञान आदि भावकर्म और सुख दुख आदि कर्म फलों में आत्म बुद्धि से फैली हुई हो, फलतः जो अपने आपको पुरुष, स्त्री किंवा नपुंसक आदि शरीर के रूप में ही प्रतीत कर रहा हो। अतएव वह शरीर और चेतना के पारस्परिक सम्बन्ध को एक-रूप में अनुभव करने वाला 'मिथ्यात्वी' मोह-क्षोभ वश समरस [ २१ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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