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मिलता है कि-अहमेव अर्थात् हमी ह ।' इतने पर भी वे सभी ज्ञातपुत्र वेशभूषा किंवा क्रियाकाण्ड की छोटी-छोटी बातों को लेकर परस्पर झगड़ते रहते हैं। फलतः एक तो उन्हें उक्त झगड़े और क्रियाकाण्ड से फुरसत नहीं, और दूसरे उन्हें ऐसे सुदृढ़ संस्कार हैं कि मुझ जैसे अरों-गैरों के साथ बात करने पर उन्हें 'मिथ्यात्व' लग जाता है। तब मैं क्यों सिर पचायूँ ?
___२. इसी प्रकार विद्यमान सम्प्रदायों में दर्शन-सामान्य-रूप आचार मूलक धर्म-मर्यादा प्रधान जैन दर्शन दुर्लभ हो चुका। हे का दर्शन श्रद्धे ! अब मैं तुम्हें दर्शन-विशेष-रुप विचार-मूलक जैन दर्शन के सम्बन्ध में उन तत्त्वविदों के सभी प्रकार के निर्णयों को सुना कर क्यों व्यर्थ बकवाद करू ! तुम इशारे मात्र से ही समझ लो कि चक्षुदर्शनावरण के उदय में मात्र सुनी-सुनाई बातों की धारणा से ही यदि कोई जन्मान्ध सूर्य-चन्द्र के रूप का विश्लेषण करना चाहे तो वह कैसे करे ? वैसी ही तद्विषयक मतवादियों की हालत है।
३. न्यायदृष्टि से साध्य अर्थ को प्राप्त कराने वाले हेतुओं के विशेष कथन को चित्त में अवधारण करके जैन-दर्शन-विशेष को यदि देखते हैं तो बीच में नयवाद-स्थली की घाटी आती है। उसको पार करने का मार्ग इतना टेढ़ा-मेढ़ा और सँकरा है कि उस पर काणी आँख से देखकर चलने वाले तो तुरन्त ही चकरा कर गिर जाते हैं, और यदि असावधान हों तो ठीक नजर वालों की भी टाँगें ऊँची हो जाती हैं। तब भला ! केवल सूरदासों की कतारों के लिए वह मार्ग कितना दुर्गम होना चाहिए ? ठीक यही न्याय गम के बिना आगमदृष्टि से चलने वालों पर लागू होता है, क्योंकि सम्प्रदायों में गुरुगम नहीं रही। इसीलिए इतना बलवान विखवाद सर्वत्र फैला हुआ है। ___ हे श्रद्धे ! यह मुझसे सहा नहीं जाता, अतः भगवान श्री अभिनन्दन से नतमस्तक हो प्रार्थना करता हूँ कि :
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