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४. श्री अभिनन्दन - स्तवनम्
सम्प्रदायों में जैन दर्शन का अभाव :
श्रद्धा - बन्धु विवेक ! मुझे बहुत दुःख हो रहा है कि कई लाख संख्यक नामधारी जैन होने पर भी उनमें से अन्तर्दृष्टि की योग्यता रखने वाला तुम्हें एक भी सुपात्र नहीं मिल रहा है । तब तो प्राण विहीन कलेवर - सी ही जैन दर्शन की स्थिति हो चुकी, क्योंकि दर्शनमोह को जीत कर अन्तर्दृष्टि की प्राप्ति के बिना तो अविरति सम्यक्दृष्टि नामक चतुर्थं गुणस्थान में प्रवेश ही नहीं हो पाता, जो कि जैनदर्शन की एकाई है । अतः तुम्हें जैन द 'न का जड़ से ही उद्धार करना नितान्त आवश्यक है ।
१. विवेक - अरी श्रद्धे ! मेरे दिल की व्यथा तुम्हें क्या बताऊँ ! जिनेश्वर भगवान ने सदैव अभिनन्दन के योग्य इस जैन दर्शन का जिस प्रकार निरूपण किया और जिस प्रकार उन्होंने इसे स्वयं अपने आचरण में उतारा, उसी प्रकार अविरोध-रूप में इसे देखने के लिए मैं तो कभी से तरस रहा हूँ, पर उसी प्रकार में इस दर्शन के दर्शन होने की दुर्लभता को देख कर अपने दिल की दिल में ही समाकर चुप हूँ, क्योंकि यह दर्शनपरम्परा जीणप्रायः और खण्ड-खण्ड हो चुकी है । इसके प्रत्येक भेदप्रभेदों के अधिनायक प्रायः विराधक वृत्ति प्रवाह में बहने वाले तुच्छ बहिरात्म - पुरुष दिख रहे हैं । उन सभी के सभी नेताओं ने केवल दृष्टिराग का प्रबल शासन जमा कर मोक्ष के प्रमाण-पत्र के रूप में अमुक वेषभूषा और अमुक क्रियाकाण्ड कायम करके अपना-अपना अखाड़ा बना लिया है । जहाँ केवल अपने ही अनुयायी के लिए 'समकित ' की रसीद कटती है और अशेष भिन्न सम्प्रदायो 'मिथ्यात्वी' घोषित किये जाते हैं । प्रत्येक नेता के पास अलग-अलग रूप में जाकर यदि उन्हें पूछा जाय कि 'वर्तमान में जिनेश्वर भगवान की वीतराग परम्परा के मुख्य पट्टधर कौन हैं ? तो सभी के स्व- मुख से एक स्वर में यही जबाब
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