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श्री अभिनन्दन जिन स्तवन
( राग-धन्याश्री सिंधुओ-आज निहेजो रे दीसे नाहलो-ए देशी )
अभिनन्दन जिण दरसण तरसियै, दरसण दुरलभ देव । मत मत भेदे जो जइ पूछिये, सहु थापे अहमेव || अभि० ॥१॥
सामान्य करि दरसण दोहिलू, निरणय सकल विशेष । मद में घेरचो हो आंधो किस करें, रवि ससि रूप विलेष || अभि० ॥२॥
हेतु विवादे चित धरि जोइये, अति दुरगम नयवाद । आगम वादे, गुरुगम को नहीं, ए सबलो विषवाद || अभि० ॥३॥
घाती डूंगर आडा अति घणा, तुझ दरसण जगनाथ । धीठाई करि मारग संचरू, सैंगू कोइ न साथ || अभि० ॥ ४ ॥
दरसण दरसण रटतौ जो फिरूं, तो रण-रोभ समान । जेहने पिपासा अमृत पान नी, किम भाँजै विष पान || अभि० ||५||
तरस न आवै मरण जीवन तणों, सीभै जो दरसण काज । दरसण दुर्लभ सुलभ कृपा थकी, 'आनन्दघन' महाराज || अभि० || ६ |
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