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बहुत सस्ता कर रखा है, अतः अत्यन्त सुगमता से केवल बाहरी धूमधाम पूर्वक ही आराधना का आदान-प्रदान चल रहा है। पर ग्राहक और व्यापारी दोनों को जरा-सा भी ख्याल नहीं है कि अन्तर्दृष्टि की अनन्य कारण-रूप भगवान संभवनाथ की यह आराधना कितनी अगम और अनुपम होनी चाहिए। वैसी हालत में यह सेवक किस को क्या कहे और कैसे समझावे? यह सेवक तो उक्त दयनीय दशा को देख द्रवित होकर उनके लिए भगवान से केवल इतनी ही याचना कर सकता है कि हे निष्कारण करुणाशील ! चैतन्य-रस से परिपुष्ट आनन्दघनमूर्ति के रूप में आप स्वयं उन लोगों के हृदय में शोघ्र प्रविष्ट होकर उन्हें अपनी अनन्य-भक्ति प्रदान करो, जिससे कि वे अन्त दृष्टि के लिए सुपात्र बन सके।
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