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नियमित आराधना प्रवृत्ति से थक कर अनियमित बन जाना ही खेद है। ये तीन महान दोष ही सम्यक्-नेत्र खोलने में बाधक हैं। ___ ३. ये तीनों ही दोष तो अन्तिम अर्ध पुद्गल-परावर्तन-काल के उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी-रूप चरण-चंक्रमण में से अन्तिम चरणस्थिति में करण-लब्धि में से होने वाले अन्तिम अनिवृत्ति-करण मं जन्य परम्परा जनक राग, द्वेष और अज्ञान परिणति के परिपक्व होकर परिक्षीण होने के अवसर में सद्गुरु की प्रकृष्ट वचन प्रधान अनुभववाणी की प्राप्ति होने पर ही टलते हैं, और सम्यग -दृष्टि खुलती है ।
४. अतः साधकीय-चित्त की सदोषता मिटाने के लिए आत्मविस्मरण, आत्म-अप्रतीति और आत्म-दुर्लक्ष आदि पापों को समूल नष्ट करने वाले दिव्य-द्रष्टा साधु-पुरुषों के परिचय में रहकर उनके श्रीमुख से आध्यात्मिक ग्रन्थों के तत्व-रहस्य का श्रवण द्वारा हृदय में अवधारण, उस पर अनेक दृष्टि-बिन्दु युक्त सुयुक्तियों द्वारा परिचिन्तन से हेय, ज्ञेय और उपादेय का विवेक, एवं उपादेय तत्त्व के सर्वथा अनुरूप अपना स्वभाव परिणमन-रूप-परिशीलन-इन परमार्थ दृष्टि को व्यवहारू बनाने वाले कारणों का सेवन सतत करते रहना साधक के लिए अनिवार्य है।
५. क्योंकि उपादान और निमित्त को कारणता प्रदान करने वाले उपरोक्त सुयोग के बिना कदापि कार्य-सिद्धि नहीं हो सकती, अतः कारणता के सद्भाव में यदि कार्य सिद्धि हो जाती हो, तब तो इसमें किसी भी प्रकार के विवाद को स्थान ही नहीं है, परन्तु कारणता को प्रगट किये बिना ही कार्य साधना में लगे रहना वह तो केवल अपने मत-पन्य के अभिनिवेश से उत्पन्न उन्माद मात्र ही है, और कुछ नहीं।
६. हे श्रद्धे ! प्रवर्तमान सम्प्रदायों में प्रायः सर्वत्र इस उन्माद का ही बोलबाला है। इन उन्मादी मुग्ध लोगों ने आराधना का बाजार
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