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________________ ३. श्री संभव-स्तवनम् अन्तर्दृष्टि साधना रहस्य : सन्त आनन्दधन अपने स्वरूप विलास-भवन के सप्तम मंजिल पर विराजमान हैं। भवन में सर्वत्र मन्द किन्तु उज्ज्वल चैतन्य रोशनी चमक रही है। सामने श्रद्धा विवेक आदि सेवक-वर्ग खड़ा है। भवन का वातावरण शीतल, सुगन्धित एवं शान्त है। कुछ क्षणों के पश्चात् उस नीरवता को भंग करते हुये श्रद्धा ने विवेक को कहा कि बन्यो ! अब तो तुम लोकोपकार करने के लिए कालोचित सर्वथा समर्थ हो चुके हो, अतः जिस साधन-क्रम से तुम्हें आत्मदृष्टि, आत्मज्ञान और आत्मसमाधि की प्राप्ति हुई है वह साधन पद्धति दूसरे उचित पात्रों को बताकर उन लोगों की अन्तदृ ष्टि का भी उन्मीलन करो, क्योंकि ज्ञानियों का यही सनातन व्यवहार है । १. विवेक-श्रद्ध ! यद्यपि तुम्हारा ख्याल यथार्थ है पर इस कार्य का होना तभी शक्य है जबकि सत्संग और सत्पात्रता का सुयोग हो । सत्पात्रता की प्रगटता के लिए साधक को पराभक्ति की उपलब्धि अनिवार्य है। पराभक्ति में प्रवेश कर पाना तभी संभव है जबकि वह देवाधिदेव श्री संभवनाथ की चैतन्य मुद्रा को सुलटाये हुये अपने हृदयकमल की कणिका के ऊपर प्रतिष्ठित करके उसमें अपनी चित्त-वृत्ति प्रवाह की स्थिरता पूर्वक एक निष्ठा से उसकी आराधना करे। अतः सर्वप्रथम अनुभवी सद्गुरु से इस आराधना के रहस्य को समझ लेना साधक के लिए नितांत आवश्यक है, और आराधना की प्रथम भूमिका में आराधक के पास उपादान कारण के रूप में अभय, अद्वेष और अखेद इन तीन गुण-रत्नों का होना भी अनिवार्य है। २. चञ्चल परिणाम वश चित्त का प्रभु की चैतन्य मुद्रा में न जमना ही भय है। शरीर, संसार और भोग वश उस प्रभु मुद्रा के प्रति दिलचस्पी का न रहना ही द्वेष है एवं दिलचस्पी के अभाव-वश १२] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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