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४. हे जगन्नाथ ! सम्प्रदाय वालों ने वेशभूषा, क्रियाकाण्ड और मत-ममत्व आदि आत्म-घातक अनेक पहाड़ के पहाड़ पटक कर आपके वीतराग सन्मार्ग का सर्वथा निरोध कर दिया है, फलतः सम्प्रदायों में कहीं भी आपके दर्शन का अविरोध रूप में दर्शन नहीं रहा अत: मैं आपकी कृपा के फलस्वरूप प्राप्त आत्म-समाधि बल से उन सभी के सभी घाती-पर्वतों को लाँघकर कोई उत्तम मार्गारूढ़ सज्जन साथी के न मिलने पर भी केवल आपके सहारे एकाकी होकर आपके वीतराग पथ पर चलने की धृष्टता कर रहा हूँ । हे कारुण्यमूर्ते ! यदि इसमें स्वच्छन्द वश मेरी कोई गल्ती हुई हो, तो सन्मति देकर उससे मुझे छुड़वाईयेगा।
५. प्रभो ! मैंने बाध्य होकर साम्प्रदायिक प्रतिबन्धों का इसीलिए परित्याग किया कि आपके अमृत तुल्य वीतराग दर्शन विषयक यथार्थ दार्शनिक प्रभावना की धून वश मैं यदि वहाँ दर्शन-दर्शन रटता हुआ जीवन भर भटकूँ, तो भी वह भटकन केवल रणभूमि के रोझ की तरह प्राणघातक ही सिद्ध होगी। क्योंकि सम्प्रदायों में हलाहल तुल्य कोई विखवाद के सिवाय और कुछ नहीं बचा। जिसे केवल अमृत-पान की ही प्रबल पिपासा सता रही हो, उसके पात्र में यदि कोरे विषपान की ही सामग्री परोसी जाय तो वह जानबूझ कर क्यों विष पान करे? और यदि कर भी ले तो उसके प्राणों का अन्त हो किंवा पिपासा का अन्त ?
६. हे जिन वीतराग ! इसकाल इस क्षेत्र में आपके वीतराग दर्शन को सांगोपांग यथार्थ उपलब्धि यद्यपि दुर्लभ है, फिर भी यदि जीव एक बार साहस और सच्चाई के साथ आत्म-समर्पण करके अनन्य शरण हो आपका कृपापात्र बन जाय, तो उसे आज भी मार्गप्रप्ति सुलभ हो जाय। और यदि मार्गारूढ़ होकर अपना दर्शन कार्य सम्पन्न कर ले, तो जीवन-मरण के त्रास से सदा के लिए मुक्त होकर वह । सद्धपद पर आरूढ़ हो आनन्दघन महाराज बन जाय ।
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