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________________ निरन्तर सद्विचार के बिना स्व-विचार दशा में प्रवेश नहीं होता और स्व-विचार दशा के बिना ज्ञान-नेत्र नहीं खुलते । ज्ञान-नेत्र के बिना ज्ञान-दशा में स्थिति नहीं होती एवं उत्कृष्ट ज्ञान-स्थिति के बिना इस अजित मार्ग में चला नहीं जाता। अहो ! इस विकराल काल में निश्चित रूप से जहाँ ज्ञान-नेत्र का ही विच्छेद है वहाँ मैं अपनी ज्ञान दशा की अखण्डता के लिए किसको अनुकूल बनाऊँ और किस तरह इस अजित मार्ग में आगे बढूं ? श्रद्धा-ओहो ! इस काल को ऐसी विषम परिस्थिति है ? तभी तो इसे ज्ञानियों ने जो 'दुषम' संज्ञा दी वह यथार्थ है । अब तो भैय्या ! इस मार्ग को पार करने के लिए उचित काल की प्रतीक्षा करना तुम्हारे लिए अनिवार्य ही है। तब तक तुम धैर्य रखो, उतावला मत बनो और प्राप्त ज्ञानदशा में अप्रमत्त बने रहो। मैं तुम्हारे सत्पुरुषार्थ की सराहना करती हुई तुम्हें अभिनन्दन देती हूँ और तुम्हारी मंगल कामना पूर्वक भगवान अजितनाथ से प्रार्थना करती हूँ कि ( भगवान के प्रति ): ६. हे जिनेश्वर ! आप इस मेरे सत्पुरुषार्थी बन्धु को अपने निज़जन सत्पुरुषों की ही कोटि में गिनियेगा, क्योंकि इसने आपके समस्त मीठे आम से भी अनन्तगुण विशिष्ट रसीले अतीन्द्रिय आनन्द को प्रपुष्ट करने वाले इस यथाख्यात-चारित्र मार्ग में चलने के लिए अगुप्त वीर्य से अथक प्रयत्न करने में कोई कसर नहीं रखी; पर मार्ग के पारंगत होने में केवल यह दुषमकाल ही इसे बाधक बन रहा है, अतः उचित काल की प्रतीक्षा करता हुआ यह मेरा बन्धु काल-लब्धि का योग पाकर आगामी जन्म में उचित क्षेत्र में समर्थ ज्ञानियों के आश्रय से आपके इस मार्ग को पार करके सम्पूर्णतया कैवल्य-पद पर अवश्य आरूढ़ होगा, क्योंकि वर्तमान में इसी आशा के सहारे यह आपका भक्तजन कालक्षेप करता हुआ जी रहा है ऐसा मेरा अनुभव है। १०] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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