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________________ भव की कसौटी से कस कर देखा तो इस अजित मार्ग में चलना तो दूर रहा प्रत्युत निश्चित रूप में उस पर कदम का रख पाना ही असम्भव प्रायः है। क्योंकि आगमों में बताया गया है कि इस काल में इसी क्षेत्र में यथाख्यात चारित्र, केवलज्ञान और मोक्ष की उपलब्धि किसी को भी नहीं हो सकती। ४. श्रद्धा-यद्यपि आगमों में कहीं पर कोई विशेष उद्देश्य वश वैसा उल्लेख है—तो रहो, पर तुम उसे तर्क की कसौटी से कस कर देखो, क्योंकि तीर्थङ्करों की शिक्षा उनके निर्वाण से बहुत काल के पश्चात् ग्रन्थारूढ़ हुई है, अतः परमार्थ दृष्टि से परीक्षणीय है। विवेक-परीक्षा के हेतु तर्क के सहारे मैं यथाशक्ति दिमागीकुश्ती भी लड़ लूं, पर उससे समाधान पाना तो दूर रहा, उल्टे वादविवाद जन्य परिखा-परम्परा में चढ़ने-उतरने रूप मरते दम तक व्यर्थ ही लय लग जाती है : जिससे पिण्ड छुड़ाकर इस मार्ग के परले पार पहुँचने में मैं तो क्या, दूसरे भी कोई समर्थ नहीं हैं। क्योंकि ज्ञानियों के सम्मत तत्त्व-रहस्य के यथार्थ अनुभवियों की बात तो दूर रही, उसे यथास्थित समझकर प्रतिपादन-मात्र करने वाला भी विश्व में कोई विरला ही देखने में आता है। तो फिर मैं किससे तत्त्व-चर्चा करूं ? ५. श्रद्धा-वास्तविक तत्त्व विचारक चाहे विरले हों, पर हैं तो सही, अतः उन्हें अपने अनुकूल बनाकर इस अजित -पथ में चलने योग्य अपनी ज्ञान दशा का विकास करो। विवेक-यद्यपि सद्विचार की योग्यता रखने वाले कोई इने-गिने व्यक्ति हैं, पर तारतम्य से उनके मन, वचन और काय योग जितने बलवान हैं, उतना ही उन लोगों में मत, पन्थ, भान, पूजा, सत्कार, अर्थ, वैभव आदि का बलवान वासना-तारतम्य है और तदनुरूप उतना ही बलवान उनका वासना से वासित कसैला बोध और आचरण है, अतः सद्विचार दशा में प्रवेश करने की भी उन्हें गरज नहीं है। [९ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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