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किन्तु भगवान से जो जीते गये, उन्हीं शत्रुओं से मैं परास्त हुआ—विवश हूँ, अतः मेरा नाम उन महान पुरुषों की कोटि में किस प्रकार गिना जा सकता है ? क्योंकि महान् पुरुषों की कोटि में वे ही गिने जा सकते हैं जो कि सत्पुरुषार्थ में कभी जरा-सी भी पीछे हट न करे।
२-३. श्रद्धा–यों हताश होकर पीछे हटना तुम्हारे लिए शोभास्पद नहीं है। अतः जाओ! इस अनुभव पथ के पथिक यथार्थ ज्ञाता किसी समर्थ अनुभवी सन्त को खोजो और उनकी अनन्य शरणता पूर्वक शत्रु दल को जीतने की तालीम लेते हुये उनके पीछे-पीछे चलो; क्योंकि सन्त का शरण ही निर्बल का बल दुःखी की दवा और सफलता की कुंजी है।
विवेक-यद्यपि तेरा कहना यथार्थ है, पर इस दुषम काल में वैसे समर्थ सत्पुरुष खोजने पर भी नहीं मिल रहे हैं। मैंने ज्ञानियों की परम्परा में विद्यमान मार्गदर्शकों को अच्छी तरह से परिचय करके देखा, पर हाय ! मुझे ऐसा कटु अनुभव हुआ कि मानो केवल अन्धों से ही अन्धे ढकेले जा रहे हों। क्योंकि आत्म-दर्शन, आत्म ज्ञान और आत्म-समाधि प्रधान भगवान के इस अतीन्द्रिय मार्ग से लाखों योजन दूर किसी लौकिक मार्ग को ही अलौकिक समझ कर सभी-के-सभी मार्गदर्शक केवल चर्म चक्षु से ईर्या-पथ के शोधन पूर्वक असन्मार्ग के अग्रसर हो रहे हैं। जिन नेत्रों से इस अरूपी मार्ग का साक्षात्कार होता है, उन्हें दिव्य नेत्र समझना चाहिए, वे दिव्य-नेत्र क्वचित् किसीकिसी की बातों में तो हैं, पर किसी के भी घट में देखने में नहीं आये। जहाँ मार्गदर्शकों की भी ऐसी दयनीय दशा है, वहाँ उनका अनुयायी सारा संसार भूला हुआ भटकता ही रहे, तो इसमें आश्चर्य भी क्या ?
श्रद्धा-बन्धो! तुझे यदि देखते पुरुषों का अभाव प्रतीत होता है, तो भगवान के अनुभव-वाणी प्रधान आगम-साहित्य को मथ कर प्रबल तत्त्व विचार का सहारा लो और आगे बढ़ो।
विवेक-प्रबल तत्त्व विचार के सहारे वर्तमान आगमों को अनु
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