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________________ २. अजित-स्तवनम् अजित पथ-यथाख्यात चारित्र : ____ जब अप्रमत्त सन्त आनन्दघन सम्पूर्ण कैवल्यदशा के हेतु रूप अनुभूति धारा की अखण्ड श्रेणी में प्रवेश करानेवाली सातिशय अप्रमत्त दशा की ओर कदम बढ़ाने के लिए अपनी योग्यता का परीक्षण करते करते स्तब्ध हो जाते हैं, तब उनके स्तब्ध अन्तःकरण में स्फुरित श्रद्धा और विवेक का परस्पर संवाद से सूचन है : श्रद्धा-बन्धु विवेक ! आज तुम यूथभृष्ट मृग की तरह दिग्मूढ़ क्यों दिख रहे हो ? विवेक :-श्रद्धे ! मुझे सम्पूर्ण कैवल्य-पद पर पहुंचने का मार्ग नहीं सूझ रहा है। श्रद्धा-ओह ! जिस मार्ग से द्वितीय तीर्थङ्कर भगवान अजित - नाथ कैवल्य-पद पर पहुँचे, उस मार्ग की ओर दृष्टि लगाओ। ( अंगुलि निर्देश पूर्वक ) यह रहा वह अजित-मार्ग । विवेक-( उस ओर दृष्टि देकर निरीक्षण करके कुछ क्षण के पश्चात् ) ऊँह ! इस यथाख्यात-चारित्र प्रधान सन्मार्ग को देख कर मैं तो हावला-बावला बन गया। क्योंकि इस पथ के पथिक के लिए अपने अनन्त आत्म गुणों को प्रतिपल विकसित करनेवाली ( धाम ) बागडोर हथिया कर मार्ग बीच अड़े हुए समस्त शत्रुदल को सर्वथा परास्त करते जाना अनिवार्य है। पर मुझ में वैसी क्षमता नहीं है। अतः मेरे लिए यह अनन्त गुणों के धाम-रूप अजित-मार्ग अजित ही है। अजी ! मैं तो क्या, बड़े बड़े पराक्रमी पुरुष भी जिस मार्ग में खता खा गये, उस मार्ग में साहजिक चलते हुए भगवान अजितनाथ ने लीलामात्र में ही सभी प्रकार के आवरण, अन्त राय एवं राग, द्वेष, मोह आदि समस्त शत्रुओं को सर्वथा जीतकर सम्पूर्ण कैवल्य पद पा. लिया । अतः भगवान ने तो अपना अजित नाम चरितार्थ कर दिखाया, [ ७. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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