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श्री अजित जिन स्तवन ( राग आसावरी-म्हारो मन मोह्यो श्री विमलाचलें रे, ए देशी )
पंथडो निहालू बीजा जिन तणु, अजित अजित गुण धाम । जे ते जीत्या तिण हूँ जीतियो, पुरुष किस्यूं मुझ नाम ॥ पं० ॥१॥
चरम नयन करि मारग जोवतो, भूल्यो सयल संसार। जिण नयने करि मारग जोइये, नयण ते दिव्य विचार ॥ ५० ॥२॥
पुरुष परम्पर अनुभव जोवतां, अन्धो अन्ध पलाय । वस्तु विचार जो आगमै करी, चरण धरण नहीं ठाय ॥ ५० ॥३॥
तर्क विचारै वाद परम्परा, पार न पहुंचे कोय । अभिमत वस्तु वस्तुगते कहै, ते विरला जग जोय ॥ ५० ॥४॥
वस्तु विचारै दिव्य नयण तणों, विरह पडयो निरधार । तरतम जोगे तरतम वासना, वासित बोध आधार ॥ ५० ॥५॥
काल लब्धि लहि पंथ निहालस्यू, ए आसा अवलम्ब । ए जन जीवे जिनजी जाणज्यो, 'आनन्दघन' मत अम्ब ॥ ५० ॥६॥
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