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६. भक्ति किंवा पूजन के भी अनेक प्रकार हैं, पर इन सब में निष्कपट आत्म समर्पण रूप पराभक्ति ही सर्वोत्कृष्ट है। शुद्ध चैतन्य मूर्तिरूप प्रत्यक्ष परमात्मा अथवा उनके अभाव में जिनको शुद्ध चेतन तत्व का साक्षात्कार हो चुका हो उन प्रत्यक्ष सत्पुरुष में परमात्म भाव स्थापन करके उनके चरणों में साधक की चेतना का समर्पित हो जाना ही आत्म समर्पण है। अर्पित चेतना को चुरा कर उसे बहिर्मुख प्रवाह रूप में अन्यत्र कहीं भी भटकाना कपट है । अतः विश्व के समस्त पदार्थों से चित्त वृत्ति व्यावृत करके उसे अविच्छिन्न धारा प्रवाह रूप में साध्याकार तन्मय बनाना-यही पराभक्ति रूप अखण्डित पूजन है और इसी का फल चित्त-प्रसत्ती अर्थात् चित्त शुद्धि है। जो आत्मा और परमात्मा किंवा चेतना और चेतन की अभिन्नता तद्रूपता रूप आत्म साक्षात्कार की जननी है। अतः पराभक्ति ही मेरे प्रियतम के आनन्दमय ठोस-पद-मोक्ष पद को प्राप्त करानेवाली रेखा-सरल मार्ग है।
पराभक्ति द्वारा आत्म साक्षात्कार करके बीज कैवल्य दशा में स्थित संत लाभानन्दजी ने क्रमशः सत्पुरुषार्थ द्वारा आत्म प्रतीति-धारा और आत्म लक्ष-धारा की अखण्डता की, और उन्होंने उस आत्मानन्द से छकी-सी अप्रमत्त दशा में अपना नाम भी आनन्दघन रखा।
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