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________________ के अनुकूल अपनी प्रकृति बना उन्हें रिझाया, क्योंकि एक सी प्रकृतिवालों का ही परस्पर मिलाप हो सकता है। परमात्मा शुद्ध चिद्-धातुमय हैं अतः साधक को भी अपनी चित्त-शुद्धि अनिवार्य है। ५. कितनेक शृंगार-रस-रसिक एक मात्र भगवत् लीला को ही मेरे प्रियतम रिझाने का प्रबल साधन बताते हैं। उनका ऐसा विश्वास है कि भगवान तो किसी भी लक्षण से लक्षित नहीं हो सकते अतः वे 'अलख' हैं, पर उन्होंने ललक अर्थात् प्रबल अभिलाषा से जो इस दुनिया की रचना की और फिर इसमें स्वतः अवतार धारण करके उन्होंने जो-जो लीलायें की, केवल उन्हीं लीलाओं को लक्ष पूर्वक महिमा गाने सुनने मात्र से ही वे प्रसन्न होकर भक्त-मन की सभी आशाओं पूर्ण करते हैं, अतः त्याग, वैराग्य और प्रभु के वास्तविक स्वरूप आदि समझने की कोई आवश्यकता ही नहीं है । पर विवेक चक्षु से देखने पर यह मन्तव्य भो केवल भ्रान्ति रूप सिद्ध होता है, क्योंकि भगवान तो राग द्वेष और अज्ञान आदि दोषों से रहित हैं जबकि लीला में तो प्रगट दोषों का ही विलास है, यथा-जहाँ लीला है, वहाँ कुतूहलवृत्ति है जो अपूर्णज्ञान-अज्ञान और आकुलता सूचक है। और लीला तो चाह पूर्वक ही हो सकती है। जहाँ चाह है वहाँ राग है। जहाँ राग है वहाँ द्वष तो अविनाभावी रूप से है ही। एवं जहाँ राग द्वेष उभय है वहाँ काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि समस्त दोष समूह है। अतः लीला और जगत कर्तृत्व निर्दोषी भगवान में किस न्याय से घटित हो सकते हैं अर्थात् किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकते। फलतः केवल कल्पना रम्य इस भगवत् लीला से केवल काल्पनिक फिल्म में ही अटक कर वे भक्त भी मेरे प्रियतम को नहीं रिझा सकते। __इस तरह मेरे प्रियतम को रिझाने के लिए जितनी भी लौकिक साधन पद्धतियाँ हैं वे सभी व्यर्थ हैं। लोकोत्तर साधन पद्धतियाँ भी अनेक हैं, जिनमें सुगम और सर्व श्रेष्ठ साधन भक्ति-पूजन है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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