SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साथ जीते-जी जलकर सतियाँ बनती हैं, इतने पर भी उन्हें पियुमिलन का तो कदापि सम्भव ही नहीं है क्योंकि सभी की करणी एक सी नहीं होती। पति का जीव अपनी करणी अनुसार न जाने कहाँ चल बसा जबकि खुद को कहाँ जाना पड़ेगा जिसका उन्हें तो कोई निश्चित पता ही नहीं। ___ इसी तरह मेरे पियु को मिलने के लिए-कितनेक अज्ञ तपस्वी पञ्चाग्नि तपते हैं तो कितनेक धूनी रमाते है, कितनेक धर्म-मूढ़ घृत धान्य आदि के होम-हवन द्वारा एवं कितनेक धर्म-राक्षस पशु पक्षी और मनुष्य तक की बली द्वारा जलती लकड़ियों का तर्पण करते हैं, तथा कोई अग्नि को ही पियु मान कर उसे स्थायी रखने के हेतु चन्दन के वन के वन उजाड़ रहे हैं। इस प्रकार अनेक धर्म मत चल रहे हैं । पर अफसोस ! उन बेचारों को मेरे पियु के वास्तविक स्वरूप, स्थान और इनकी आराधन-पद्धति की जरा सी भी गतागम नहीं है, तब भला ! उन्हें पियु-मिलन कैसे हो सकता ? ४. अपने रूठे पति को रिझाने के लिए कितनीक स्त्रियां बहुत सी कठिन तपस्यायें करती हैं । यदा-कदाचित् तप के प्रभाव से किंवा प्रकृति मिलाप से पियु खुश भी हो गया, तो वह आलिंगन आदि से काम-ज्वर बढ़ाकर शरीर को संतप्त कर देता है, फलतः इस पियु रंजन से रजः-वीर्य रूप धातु मिलाप होकर अशाता-मूलक संसार की ही वृद्धि होती है। तथैव मेरे प्रियतम को रिझाने के लिए कितने ही अज्ञ तपस्वी बहुत से दुर्धर तपश्चरण करते हैं परन्तु अन्तर्लक्ष शून्य केवल बाह्य तप आदि द्वारा पियु रिझाने से तो पियु नहीं रीझता अपितु क्रिया काल में तन ताप रूप अशाता और फल काल में प्रायः अन्तर्ताप रूप शाता वेदनीय का वह कारण बनता है अतः पियु रिझाने की इन दोनों पद्धतियों को अपने हृदय में स्थान न देकर, मैंने तो केवल पियु प्रकृति [३ Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy