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१. ऋषभ - स्तवनम्
पराभक्ति :
१. संत आनन्दघनजी की पराभक्ति युक्त चेतना अपने हृदय प्रदेश में भगवान ऋषभदेव के साकार रूप में प्रत्यक्ष सुयोग को पाकर उल्लास पूर्वक अपनी श्रद्धा सखी को कह रही है कि :
हे सखि ! समस्त आवरण और अन्तरायों से परिमुक्त मोह और क्षोभ को जीतने वाले जिनेश्वर भगवान अव्याबाध समाधि - स्वरूप शुद्ध चैतन्य मूर्ति श्री ऋषभदेव मेरे प्रियतम हो चुके, मैंने पति रूप में उनका वरण कर लिया अतः अब मैं अन्य कोई भी मोही और क्षुब्ध को प्रियतम रूप में नहीं चाहती, क्योंकि मुझे खुशी से अपना लेने पर मेरे साहब मेरा कभी भी परित्याग नहीं करेंगे । अतएव मर्मज्ञों ने हमारे इस लोकोत्तर सम्बन्ध को 'सादि अनन्त भंग' रूप में स्वीकार किया है, क्योंकि चेतन और चेतना के शुद्ध सम्बन्ध की आदि तो है पर अन्त नहीं है ।
२ विश्व में समस्त प्राणी परस्पर प्रेम सम्बन्ध करते चले आ रहे हैं, पर वास्तव में वह उपाधिमूलक होने से लौकिक प्रेम सम्बन्ध है, लोकोत्तर नहीं, क्योंकि लोकोत्तर प्रेम सम्बन्ध तो निरुपाधिक बताया गया है, जो कि मोह क्षोभ आदि उपाधिरूप पर धर्म धन के सर्वथा त्याग पूर्वक ही होता है ।
३. हे सखि ! अलौकिक प्रेम-पथ के अनजानों की विश्व में कैसी करुण फजीहत हो रही है, अब जरा सा यह भी सुन लो :
पियु- प्रेम वश कितनीक स्त्रियाँ अपने बिछुड़े हुए प्रियतम को शीघ्रतम भेंटने के लिए उसकी लाश के पीछे दौड़ती हुई अपने शरीर को सुलगती लकड़ियों का भक्ष्य बनाकर पति की लाश के साथ ही
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