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________________ आनन्दघन चौबीसी का संक्षिप्त भावार्थ श्री ऋषभ जिन स्तवन ( राग मारू: करम परीक्षा करण कुंवर चाल्यो, ए देशी ) ऋषभ जिणेसर प्रीतम माहरो, और न चाहूँ कंत। रीझ्यो साहब संग न परिहरे, भांगे सादि अनन्त ॥ ऋ० ॥१॥ प्रीत सगाई जग मां सहु करै, प्रीत सगाई न कोय । प्रीत सगाई निरुपाधिक कही रे, सोपाधिक धन खोय ॥ ऋ० ॥२॥ को कन्त कारण काष्ठ भक्षण करै, मिलस्यु कंत नै धाय । ए मेलो नवि कदिये संभवे, मेलो ठाम न ठाय ॥ ऋ० ॥३॥ कोइ पति रंजन अति घणु तप करै, पति रंजन तन ताप। . ए पति रंजन में नवि चित धरच, रंजन धातु मिलाप ॥ ऋ० ॥४॥ कोइ कहै लीला ललक अलख तणी, लख पूरे मन आस । दोष रहित नै लीला नवि घटै, लीला दोष विलास ॥ ऋ० ॥५॥ चित्त प्रसत्ति पूजन फल का , पूजि अखंडित एह । कपट रहित थई आतम अरपणा, 'आनन्दघन' पद रेह ॥ ऋ० ॥६॥ Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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