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बुद्धिसागरसूरिजी श्री मोतीचंद गिरधरलाल कापड़िया आदि सभी महानुभावों ने श्रीमद् के साहित्य का अध्ययन कर हजारों पृष्ठों में जो सत् साहित्य का भण्डार भरा है वे सभी हमारे लिए सम्माननीय और पूज्य हैं ।
प्रस्तुत चौवीसी गत १७ स्तवनों का विवेचन आत्मानुभवी गुरुदेव श्री सहजानंदघनजी महाराज ने उस स्तर पर उठकर इन स्तनों का रहस्य उद्घाटित किया है जहाँ श्रीमद् आनंदघनजी के भावों की झलक स्पष्ट दिखाई देती थी और उन्होंने अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर जो प्रश्नोत्तर हुए उसे भी लिपिबद्ध किया है, जो अभूतपूर्व और अपूर्व है । जिन्हें आत्मदर्शन व आत्म साक्षात्कार हुआ है और जिनका अखंड आत्मलक्ष रहता था ऐसे महापुरुष श्री सहजानंदघनजी का जन्म इस काल में अच्छेरात्मक था उनकी बाह्य चर्या और वेशभूषा बिहार आदि पूर्वकर्मानुसार होता था पर प्रवृत्तिकाल में अखण्ड आत्मलक्ष और निवृत्ति काल में वे अनुभूति की आनंद- धारा में निमग्न रहते थे ।
श्रीवल्लभ उपाध्याय ने विजयदेवसूरि महात्म्य में सत्य ही लिखा है कि गंगा किसी के बाप की नहीं होती । महापुरुष किसी सम्प्रदाय / गच्छ विशेष के न होकर सभी के होते हैं । श्रीमद् आनंदघनजी महाराज सभी आत्मार्थी जनों के लिए कल्पवृक्ष कामधेनु तुल्य हैं । उन महापुरुषको जब स्वयं ही अपना परिचय देना अभीष्ट नहीं था तो उन्हें कल्पना सृष्टि द्वारा सम्प्रदायवाद में खींचने की चेष्टा करना सर्वथा अनुचित है। जबकि श्रीमद् बुद्धिसागरसूरिजी आदि महापुरुषों व उनके बाद सभी ने उनके तपागच्छ में दीक्षित होना लिखकर अनुधावन किया है । मैंने अनेक दृष्टिकोण से उन्हें खरतरगच्छ में दीक्षित होने का पिछले पृष्ठों में ऐतिहासिक दृष्टि से प्रतिपादन किया है । तत्कालीन वातावरण या परिवेश प्रस्तुत करने में कहीं भी अपने अधिकार या मर्यादा का उल्लंघन हो गया हो तो उसके लिए पुनः पुनः क्षमाप्रार्थी हूँ ।
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