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उपसंहार बावा आनंदघन अध्यात्म की उच्चतम भूमिका पर पहुँचे हुए योगीन्द्र युगपुरुष थे। उन्होंने आत्म साधना में अद्भुत कदम बढाये सम्यग दर्शन और आत्मानुभूति मार्ग से अत्यन्त दूर गच्छ भेद,' स्व. मान्यता के आग्रहबश वीतराग मार्ग से हट कर गमन करते संघ और सघ नेताओं को यमन करते देखा तो उनकी आत्मिक पुकार ने क्रान्तिकारी कठिन साधना मार्ग पर एकाकी चल पड़ने को बाध्य किया। उनकी संप्रास अल्प रचनाएँ आत्मार्थी महापुरुषों के लिए प्रकाश स्तंभ बनी और जिससे प्रभावित होकर चिन्तन की गहराइयों में उतर कर उपाध्याय यशोविजयजी आदि की विद्वत्ता पूर्ण रचनाओं ने भी अध्यात्म मार्ग का नया मोड़ लिया। सौ वर्ष बाद उनके साहित्य के चार दशक पर्यन्त परिशीलन ने श्रीमद् ज्ञानसारजो को छोटे आनंदघन नाम से अभिहित किया। उन्होंने चालीस वर्ष तक अध्ययन कर जो अनुगा. मित्व पूर्ण रचनाएं की किन्तु विधि का विधान है कि किसी ने उन पर परिशीलन कर शोध प्रबन्ध नहीं लिखा। फिर भी बाबा आनंदघन की अध्यात्म परम्परा में सुखानंदजी, चिदानंदजी ज्ञानानंदजी, द्वितीय चिदानंदजी, मोतीचंदजो और श्री सहजानंदघन जो महाराज हुए जिन्होंने गच्छ समुदाय की वाड़ाबंदी से पृथक् होकर उच्चकोटि की साधना की और मुमुक्षुओं के लिए मार्गदर्शक बने।
श्री ज्ञानविमलसूरिजी का आनंदघन चौवीसी विवेचन सर्वप्राचीन है। पन्यास श्री गंभीरविजयजी महाराज, योगनिष्ट आचार्य श्री
१. गच्छना भेद बहु नयण निहालतो, तत्वनी बात करता न लाजे ।
उदर भरणादि निजकाज करता थकां, मोह नड़िया कलिकाल राजे । २. "हिवै पं० ज्ञानसार प्रथम भट्टारक खरतरगच्छ संप्रदायी वृद्ध वयोन्मुखिये,
सर्वगच्छ परंपरा संबन्धी हठवाद स्वेच्छायें मूकी एकाकी विहारियै कृष्णगढे सं० १८६६ बावीसी नु अर्थ तिमज बे स्तवनकरी"
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