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कर युंजनकरण से पड़ा अंतर गुणकरण / रत्नत्रय ग्रहण होने से अंत में अंतर मिट जायगा । लिपिकार के दोष से 'अंतर' दूसरी बार आया वह 'अंत' होने से शुद्ध होगा ।
३. कुंथुनाथ भगवान के स्तवन में 'मनड़ो किमही न वाजे' पाठ में 'न' शब्द न रहने से निर्णयात्मक निषेध न रह कर प्रभु से प्रार्थना / जिज्ञासा हो जाती है और अंत में आपने मन को वश में किया है और मुझे भी मनोविजयी बना दो तो सत्य प्रतीति हो जाय । जैसे पद्मप्रभ स्तवन में प्रार्थना / जिज्ञासा है वैसे ही यहां समझना चाहिए ।
४. मल्लिनाथ स्वामी के प्रकाशित स्तवन में प्रारंभ ही असंगत है । प्रथम पंक्ति "सेवक किम अवगणिये हो, मल्लिजिन ए अब शोभासारी । यह "सेवक किम अवगणिये हो” तो ढाल की देशी है जो स्तवन के साथ मिल गई है । अन्यथा भगवान सेवक की क्या अवगणना करते हैं ? अर्थ करने में खींचतान और असंगति आ जाती है । यहाँ पर 'एह अचंभो भारी हो मल्लिजिन' पाठ होने से अथं संगति बैठ जाती है कि भक्त लोग आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि सभी लोग जिन दोषों को आदर देते हैं, आपने उन अष्टादश दूषणों को दूर निवारण कर दिया यही तो आपकी शोभा है ।
स्तवन बावीसी के अतिरिक्त कुछ स्तवन, अनेक पद तथा सज्झायादि मिलते हैं जो जरगड़जी की पुस्तक में प्रकाशित हैं। पदों में कबीर, द्यानतराय, सुखानंद, आनंदवद्धन आदि के पद इसमें मिल गए हैं उन पर विचार करना हमारा इस पुस्तक में अनावश्यक है तथा अर्थ के सम्बन्ध में भी हम पड़ना नहीं चाहते । श्रीमद् के ९० पदों को विषयानुक्रम से वर्गीकरण कर गुरुदेव ने काकाजी को भेजा था जो महत्व - पूर्ण और इस ग्रन्थ में प्रकाशन योग्य होने पर भी बीकानेर के हमारे संग्रह - समुद्र से खोज कर मंगाना अशक्य होने से नहीं दिया जा सका ।
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