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xxxxvi की दीक्षा लेली और सचमुच यतिबन गया । गुरुदेव ने भी मेरे अन्तरानन्द की छाया को देखकर मेरानाम भी 'लाभानन्द' जाहिर किया । फिर प्रभु के आशीर्वाद से अपनी आत्मा में सर्वाग प्रकाश होने से आनन्द की गंगा में बहकर चैतन्य सागर में तद्रूप हो गया। इस अपूर्वकरण के फल स्वरूप नारियल में रहे हुए सूखे गोले की तरह अन्तर्मुहुत तक वह निवृत्ति अपार रही। इस अनिवृत्ति करण में मुझे आत्म स्वरूप की झाँकी हो गई, मैं कृतकृत्य हो गया। ( इस स्वानुभूति का आनन्द प्राप्त करने के लिए विवेचन को बारंबार हृदयंगम करना चाहिए। )
इस आत्म जीवनी के अनुसार जन्मभूमि मेड़ता में शान्तिनाथ जिनालय में प्रतिदिन दर्शन पूजन करने की बात लिखी है। वहाँ शान्तिनाथ भगवान के दो मंदिर हैं। आनन्दजी कल्याणजी पेढी के प्रकाशन में नं० २२ ६० में चोपड़ों के मुहल्ले में सं० १६७७ में जिनराजसूरिजी द्वारा प्रतिष्ठित मंदिर है और दूसरा नं० २२९९ मुता की पोल में है जहाँ १८ पाषाण की और १६ धातु प्रतिमाएँ है। प्रथम मंदिर में ८ पाषाण प्रतिमाएँ है। मुता के पोल वाले मंदिर का प्रतिष्ठा संवत उल्लिखित नहीं है यदि चोपड़ों द्वारा निर्मापित शांतिनाथ जिनालय में आनन्दघनजी अपने गृहस्थावस्था में पूजा करते होंतो पहले से ही आत्म चिन्तन चलता था और समाज उनकी धार्मिक वृत्तियों के कारण 'यति' कहा करता था। इस हिसाब से जिनराजसूरिजी ने विजय नंदी के बाद अर्थात् १६७८ फाल्गुन सुदि ७ को रंगविजय, मानविजय रामविजय आदि को दीक्षा देने के बाद 'आनन्द' नन्दी में लाभानन्दजी को दीक्षित किया हो। इन सहदीक्षितों में मानविजय बीकानेर (जिनरत्नसूरि) के आज्ञानुवर्ती और रामविजय लखनऊ (जिनरंगसूरि) के आज्ञानुयायी रहे जिनकी परम्परा में चिदानन्दजी एवं ज्ञानानंदजी हुए जिनके सम्बन्ध में आगे लिखा जा चुका है।
श्री शान्तिनाथ स्तवन के विवेचन की अनुभूति के प्राकट्य से
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