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चौवीसी के सतरह स्तवनों का अर्थ विवेचन करने में गुरुदेव ने गहन चिन्तन द्वारा जो आत्मानुभूति व्यक्त को, उनकी अनोखी मौलिक शैली है। श्रद्धा, सुमति, विवेक, जिज्ञासु, आकाशवाणी, सत्संगी, अन्तरात्मा, अनुभूति, विभिन्न संप्रदायों के दार्शनिक विद्वान, दशनामी संप्रदाय के सदस्यों की चर्चा आदि के माध्यम से उन्होंने जो अनुभूतियां व्यक्त की, अद्भूत हैं।
धर्मनाथ स्वामी के स्तवन के विवेचन में लिखा है कि वे स्वयं ( आनन्दघन ) संप्रदाय-जाल में फंसकर क्रियावन में घुड़ दौड़ करने के पश्चात् कुछ भी पल्ले न पड़ने पर गहराई से चिन्तन करते रहे । अन्तर्लक्ष जमते ही जातिस्मरण होने, और पूर्वजन्म में जैन साधु होने, तीर्थकर निश्रा में वीतराग मार्ग की आराधना करने का क्रम स्मृति में आने से सांप्रदायिक जाल से मुक्त हो प्रभु कृपा से उन्होंने अपना परम निधान प्राप्त कर लिया।
शान्तिनाथ स्वामी के स्तवन के विवेचन में मुमुक्षु द्वारा आत्म शान्ति का उपाय पूछने पर उसे ऐसे पारमार्थिक प्रश्न उठने पर धन्यवाद देते हुए स्वानुभूति व्यक्त करते कहा है कि मेरे हृदय में ऐसे प्रश्न उठते, समाधान के लिए छटपटाता रहता। ग्राम वासी लोग मुझे 'यति' नाम से पुकारा करते । इस शरीर की जन्मभूमि में शान्तिनाथ भगवान का जिनालय था जहाँ नित्य नियमित दर्शन-पूजन करता। एक दिन रोते-रोते विह्वल प्रार्थना में बेहोश हो गया तो हृदय प्रदेश में प्रभु की साकार मूत्ति प्रकट होने और समाधान पाने का विस्तृत वर्णन ही स्तवन में लिपिबद्ध किया लिखा है।
इस स्तवन के विवेचन की प्रारंभिक भूमिका में जो स्वानुभूति । अपनी जीवनी प्रकट करते हए बतलाया है कि मेरे प्रश्नों का समाधान मिल जाने पर मैं होश में आकर नाच उठा और घर जाकर पारिवारिक मण्डली को समझा बुझाकर मैंने क्षमा आदि दशविध यति धर्म
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