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"आनन्दघनजी विषयक अत्यारे गमे तेम कल्पना कराती होय छतां दिव्यशक्ति थी आ आत्मा ने एम जणायुं छे के तेओ मेड़तामां नगरसेठ ना उपालंभ थी वस्त्र पात्र शास्त्रादि बधुं त्यागी दिगम्बर पणे शहेर छोडी जंगलमां चाल्या गया त्यारे तेमना अंतरंग भक्तो पण पाछल पाछल गया, तेओ खङ्गासने ध्यान मां हता त्यारे भक्तो ए तेमनी कमरे कोपीन बांधी दीधी अने काउसग्ग छोड्या वाद ते विषे श्री आनन्दघनजीए पण विरोध न कर्यो पण रहेवा दीधी, आहार करपात्र मां एक वार लेता, ठाम चौविहार । काचुं पाणी तो अड़ेज शाना | आहार क्वचित् भक्तो पासे थी जंगल मांज प्राप्त करता, अथवा ते अर्थ समीप ना गामोमां जता, अंतिम काले कोपीन ने पण त्यागो अणसण करी महाविदेह वासी थया । आथी अधिक लखवानी स्फुरणा नथी माटे अटलाथी संतोष मानजो ।
अब तक जो भी आनन्दघन जी का अध्ययन हुआ, अपने अपने क्षयोपशम के अनुसार किसी ने चालीस वर्ष अध्ययन किया किसी ने कुछ वर्ष और किसी ने २३ दिन में है पुस्तक लिख डाली इन महापुरुष पर अध्ययन कर लिखने वाले सभी धन्यवादाहं हैं । जो जितनी गहराई से चिन्तन कर सका उसने उतने ही बहुमूल्य रत्न पाये । मस्तिष्क की उडान और हृदय की अनुभूतियों में रात दिन का अन्तर होता है । आत्मलक्षी चिन्तन मानव को अतीन्द्रिय ज्ञान में अधिष्ठित कर उन महापुरुष से हृदय के बेतार तारों से जोड़ने में सक्षम हो जाता है । गुरुदेव श्री सहजानन्दघनजी महाराज ने जितनी गहराई में चिन्तन किया था यदि पूर्ण रूपेण लिपिबद्ध कर पाते तो अभूतपूर्व आत्मानुभूति मण्डित वस्तु होती किन्तु जो कुछ भी उपलब्ध हुआ, हमारा सौभाग्य है । क्योंकि हमारी आत्म जागृति में प्रकाश स्तंभ की भाँति पथ प्रदर्शन करता रहेगा । गुरुदेव ने जो स्तवनों के मूल पाठ निर्धारित किये थे वे भी प्राप्त नहीं हुए यदि हम्पी में कहीं हस्तगत हो गए तो उन्हें अवश्य प्रकाश में लाया जायेगा ।
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