________________
Xxxxiii
क्षयोपशम बढता है अतः पत्रारूढ करना हानिकारक नहीं, यह भो सत्य है । x X अमुक समय साधना में बीतता है अतः अवकाश कम है, बाकी अरुचि नहीं है ।
मेरा बहुत सा समय साधन में बीतता है, अतः लेखन क्रिया में चित्त नहीं लगता । भावना तो बहुत है कि आपका कार्य पूर्ण कर दूँ, किन्तु कर नहीं पाता । विशेष अनुभूतियों को पत्रारूढ करके किंवा व्यक्त करने में दत्त गुरुदेव सम्मत नहीं हैं। उनका कहना है कि बहुत विषम काल है । जीवों की वृत्ति भौतिकता के पीछे घुड़दौड़ कर रही है । अनुभव मार्ग के अधिकारी नहीं से है । अत: अलौकिक बातों को न समझने के कारण अर्थ का अनर्थ होना स्वाभाविक है । इसलिए सब कुछ गुप्त कर दो, समझ कर शमालो ।
मैं आजकल बाबा आनंदघन कृत चौवीस जिनस्तवनों का हिन्दी में विवेचन लिख रहा हूँ । इनकी विचार धारा धर्म क्रान्ति और अनुभव बल से अलंकृत है। जैन दर्शन किंवा धर्म की अनुभव - शून्यता के प्रति उनके हृदय में बड़ा भारी दुख रहा है जिसे पदों द्वारा व्यक्त भी किया है जो अनुभवशून्यता दि० श्वे० उभय संप्रदायों में अधिकतर दिख रही है । जैन दर्शन विषयक दिमागी कसरत जोरों से प्रचलित हो रही है पर जैन धर्म विषयक हृदय की कसरत नहींवत् रह गयी है । हृदय की कसरत से तन्दुरुस्ती पाये बिना कोरी दिमागी कसरत अनुभव पथ में प्रवेश नहीं करा पाती, ऐसा कहना अनुचित न होगा ।
मुनि श्री आनन्दघन विजयजी ( वर्तमान में आचार्य श्रीविजय आनन्दघनसूरि महाराज गुरुदेव श्री सहजानन्दघनजी महाराज के परम भक्त और साधनाशील महापुरुष हैं । उनकी शंकाओं का समाधान और साधना मार्ग में आगे बढ़ने के लिए मार्गदर्शन हेतु प्रचुर पत्र व्यवहार हुआ करता था । आनन्दघनजी की जीवनी संबंधी जो बातें उन्हें गुरुदेव ने लिखी थी वे इस प्रकार हैं :
:
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org