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xxxxii सका था। वैसे पंडित लालन आदि ने भी किया था ऐसा सुना है पर देखने में नहीं आया। इस युग के मूर्धन्य आत्मद्रष्टा योगीन्द्र युगप्रधान सद्गुरु श्री सहजानंदघनजी महाराज ने अपने प्रवचनों में आनंदघनजी के स्तवनों पर पर्याप्त विवेचन किया था, पर किसी ने उसका टेपरिकार्ड या लेखन नहीं किया। जब आप बीकानेर उदरामसर धोरा गुफा में थे तब सतरह स्तवनों तक विवेचन लिखा था। काकाजी अगरचंदजी की सतत प्रार्थना प्रेरणा थी पर अपनी आत्म/साधना में लगे रहने से अवकाश निकाल कर वे लेखन कार्य पूरा न कर सके। उनके चिन्तन में आगे बढ़ने पर उन्हें नई-नई स्फुरणाएं और अनुभूतियाँ होती जिससे आगे का लेखन फीका मालूम होता। उन्होंने हमें एवं अन्य मुमुक्षुओं को पत्रों में इस सम्बन्ध में जो समाचार दिए उनका सारांश यहाँ दे रहा हूँ।
आनन्दघन चौवीसी का विवेचन मैं अपने ढंग से करता जाता हूँ जिसका किसी अन्य कृति से मेल नहीं बठेगा। मेरी पद्धति अनोखी है, बहुत गहन विचार कर स्वपर प्रेरक ढंग से लिखता हूँ । ऐतिहासिक संशोधन पूर्वक पाठ लेता हूँ जो कि प्रचलित पाठों से कुछ भिन्न पड़. जाएंगे, किन्तु बहुत उपयोगी होंगे। चौदहवें स्तवन का विवेचन ११ फुलिस्केप पृष्ठों में, नौवाँ ९ पृष्ठ जितना हुआ है नौवें में अष्ट द्रव्यों का जो अनुभव क्रम लिखा है वह कहीं पढ़ा नहीं, फिर भो अनुभव गम्य है। मनुष्य देह को जिनालय की तुलना मन्दिर रचना के अनुभव क्रम में चित्रित किया है, मुद्रित होने पर बहुतों को सहायक होगा।
आनंदघन साहित्य विषय में x x जहाँ विचारने बढू नित्य नयी स्फुरणा होती है। धोरा में लिखे अर्थ अभी की समझ में मामूली लगते हैं जिससे अभी रुकने की प्रवृत्ति हो जाती है। जब तक पूर्ण ज्ञान न हो एक अक्षर भी बोलने में जोखम है। तीर्थंकरादि महापुरुष छद्मस्थ दशा में मौन रहते थे। दूसरे नयानुसार ऐसी प्रवृत्ति से ज्ञान का
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