________________
XXXX
राजसूरि और आचार्य पद पर श्री जिनसागरसूरि आरूढ हुए। सं० १६७४ में मेड़ता में ही पट्टोत्सव हुआ। इनका जन्म १६४७, दीक्षा १६५७, वाचक पद १६६७ में हुआ था। तीक्ष्ण बुद्धि वाले होने से बाल्यकाल में ही शास्त्रों के पारंगत हो गए और १३ वर्ष की अवस्था में आगरा में चिन्तामणि तर्कशास्त्र पढ लिया था। मेड़ता के ही अधिवासी आनंदघनजी थे और सं० १६७४ में ही श्री जिनराजसूरिजी के पास सम्पर्क में अधिक आये हों, संभावना की जा सकती है। मेड़ता में चोपड़ा आसकरण ने यह पट्टोत्सव किया था और वहाँ से पहले शत्रुजयादितीर्थों का संघ भी निकाला था। सं० १६७७ में शान्तिनाथजिनालय की प्रतिष्ठा भी मेड़ता में कराई थी। अतः उस समय उनकी दीक्षा भी असम्भव नहीं, मेरा अनुमान है उस समय इन्हें सत्संग का सबल संयोग मिला। दीक्षा के अनंतर जिन राजसूरि और समयसुन्दरजी के शिष्य हर्षनंदन के पास इन्होंने (लाभानंद ने) शास्त्राभ्यास किया होगा।
जिनराजसूरि उच्चकोटि के विद्वान थे उन्होंने हिन्दी में बहुत सौ पद रचना की थी। इनके ४१ शिष्य-प्रशिष्य थे। इन्होंने ६ को उपाध्याय पद दिए थे जिनमें उपयुक्त महोपाध्याय पुण्यकलश भी होंगे। इन सभी बातों का निश्चित समाधान प्राचीन इतिहास एवं अप्राप्त दफ्तर बहिये, जो समाज की असावधानी से लुप्त हो गए। प्राप्त हए बिना सिलसिलेवार इतिवृत्त लिखा नहीं जा सकता। पर आनंदघनजी खरतरगच्छ में दीक्षित हुए इस में कोई संशय नहीं रह जाता।
श्री जिनचंद्रसूरिजी के शिष्य लालकलश थे जिनके शिष्य ज्ञानसागर के शिष्य कमलहर्ष लिखित सारस्वत व्याकरण की पुञ्जराजी टीका पत्र १११ श्री पूज्यजी के संग्रह में है। 'कलश' नंदी में दीक्षित प्रशिष्य क्षेमकलश के शि० महिमासागर के शिष्य सुप्रसिद्ध आनंदवद्धन सुकवि थे जिनकी चौबीसी, भक्तामर-भाषा, कल्याण मंदिर भाषा, स्तवन पदादि तथा अरहन्नक चौपाई आदि कृतियाँ उपलब्ध हैं।
___ इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में उठाये गये प्रश्नों का संक्षिप्त समाधान हो जायगा।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org