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xxxix आनंदघनजी के देहोत्सर्ग के सम्बन्ध में 'निजानंद चरित्र' के उल्लेख पर शंका नहीं की जा सकती। पक्ष-विपक्ष की बातें, शास्त्रार्थ की बातों में हमेशा मतभेद और विपक्षी को हेय दृष्टि से प्रदर्शित करना असंभव नहीं, पर देहोत्सर्ग की बात विश्वसनीय ही है, क्योंकि उस समय कोई दूसरे लाभानंदजी नहीं थे। वे वृद्धावस्था में मेडता में रहने लगे इसमें दो मत नहीं है। जहाँ उनके जीवन का अधिकांश भाग बीता हो तो परिचय में आने वाले सभी उसी नाम से पहचानते हैं। अतः जो लोग सत्यविजयजी के चिर संग रहने या यशोविजयजी के चिर संग रहने या यशोविजयजी के बाद आनंदघनजी के देहोत्सर्ग की कल्पना करते हैं वे कुछ पूर्वाग्रह ग्रस्त मालूम देते हैं।
निष्पक्ष व्यक्तियों का कर्तव्य है कि बिना प्रमाण की बातों को विश्वस्त न मानें और गहराई से विचार करें। खरतरगच्छ की उदारता प्रसिद्ध है। गुणग्राहकता के कारण अन्य गच्छ के महापुरुषों के वर्णन में काव्य, रास, चौपाई, गीत आदि पर्याप्त लिखें । श्रीवल्लभोपाध्याय का विजयदेवसूरि महात्म्य ( महाकाव्य ) सिद्धसूरिजी के कथन से उपकेश शब्द व्युत्पत्ति, समयसुन्दरोपाध्याय का पुंजा ऋषि रास, भट्टारकत्रय गीत, जिनहर्षगणि कृत सत्यविजय पन्यास रास आदि ग्रन्थ उसी समय के हैं। जैनेतर ग्रन्थों पर खरतरगच्छीय विद्वानों की प्रचुर टीकाएं उपलब्ध है। तपागच्छ में उपाध्याय यशोविजयजी गुणग्राहक और उच्चकोटि के विद्वान थे जिन्होंने आनंदघनजी से सौहार्द पूर्वक मिलकर अष्टपदी की रचना की थी।
खरतरगच्छ की प्राचीन दफ्तर बहियें नहीं मिलती। सं० १७०७ से दीक्षा नंदी सूची मिली है. इससे पूर्व की मिल जाती तो समस्या हल हो जाती। आनंदघनजी की दीक्षा सं० १६७० तक तो नहीं हुई थी। श्री जिनचंद्रसूरिजी की स्थापित ४४ नन्दियों में अंतिम नंदी 'कलश' उपरि वणित है। उनके पट्टधर श्री जिनसिंहसूरि ४ वर्ष बाद ही मेड़ता में स्वर्ग वासी हो गए। इनके पट्ट पर समर्थ विद्वान भट्टारक श्री जिन
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