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xxxvii ११ लाभानंद १२ सहजानंद १३ विद्यानंद १४ अमृतानद १५ क्षेमानंद १६ दर्शनानंद १७ गजानंद १८ विजयानंद १९ महिमानंद २० ज्ञानानंद २१ सुगुणानंद २२ भाग्यानंद २३ कमलानंद २४ नित्यानंद २५ जयानंद २६ क्षेमानंद।
सं० १९४३ आश्विन शु० १० जयपुर में-१ महिमानंद २ कृष्णानंद ३ रत्नानंद ४ ज्ञानानंद
सं० १९४५ जयपुर में १ पूर्णानंद। सं० १९४६ १ गजानंद । सं० १९५२ रतलाम में १ सदानंद २ रामानंद ३ देवानंद ४ कनकानंद ५ दयानंद ६ सत्यानंद ७ क्षमानंद ८ मेघानंद इनके शिष्यादि भिन्ननंदी में होने से नाम नहीं दिए हैं। लगभग ५० नाम हो गए हैं।
साहित्यकार/ग्रन्थकारों का नाम देने से हेमानंद, विनयानंद, सदानंद, चिदानंद आदि अनेक हैं और उनकी रचनाएं भी हैं। प्राचीन साहित्य में खोजने पर और भी बहुत मिलेंगे।
ऊपर महाप्रबन्ध गत तीनों बातों का स्पष्टीकरण कर दिया गया है। आगे लिखा गया है कि दीक्षा नाम लाभानंद था लिखा सो यह नाम किसे अस्वीकार है। खरतरगच्छ साहित्य में देवचंद्रजी ज्ञानसारजी आदि सभी को यह पूर्व नाम स्वीकार है। [ श्री विजयानंदसूरि ( आत्मारामजी ) ने जो लिखा है कि सत्यविजयजी ने क्रियोद्धार किया और वर्षों तक आनंदघनजी के साथ वनवास में रहे लिखना सर्वथा अप्रामाणिक है। उनके निर्वाण के एक मास बाद बने जिनहर्ष कवि कृत रास में इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है। यह सब बाद की कल्पना सृष्टि है। आनंदघनजी की कृतियों में एक पद तो 'लाभानंद' नाम से भी संप्राप्त है।
श्री मोतीचंद कापड़िया के मतानुसार सत्यविजयजी ने पन्यास पद के बाद ही क्रियोद्धार किया था। पंन्यास पद उन्हें सं० १७२९ में मिला था। इधर सं० १७३१ में मेड़ता में श्री आनंदघनजी का निधन
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