________________
xxxiii
यहाँ जो चिदानन्द, विजयानन्द का उदाहरण दिया वह सही नहीं है चिदानन्दजी खरतरगच्छ के थे उनका नाम कपूरचन्द और दीक्षानाम कल्याणचारित्र था चिदानंद तो आनन्दघनजी की तरह योगनाम / उपनाम है | विजयानन्द नामान्त पद नहीं किन्तु विजयानन्दसूरि का दीक्षानाम आनन्दविजय था । तपगच्छ में आचार्य पद होने पर 'विजय' नामान्त आगे कर देते हैं अतः दोनों उदाहरण निरर्थक है । उपनाम भी चिदानंद, ज्ञानानंद, दूसरे चिदानंद, सहजानंद आदि खरतरगच्छ परम्परा में ही है । उपनाम परम्परा का तपागच्छ में एक भी उदाहरण नहीं मिलता । पर तपगच्छ परम्परा का यह आग्रह रहा है कि जो भी महापुरुष हुए वे तपगच्छ में और गुजरात में हुए । भले ही वे राजस्थान आदि में जन्मे हों या अन्य गच्छ में हुए हों । ज्ञानानंदजी को जो चिदानंद जी के गुरु भ्राता थे, चिदानंदजी जो सौ- सवा सौ वर्ष पूर्व विद्यमान थे कापड़ियाजी ने इन्हें तपागच्छ का मान लिया और ज्ञानानंदजी को कृतियाँ ज्ञानविलास और संयमतरंग को ज्ञानविमलसूरि ( १६९४१७८२ ) की रचना मान कर उनके पदों के उद्धरण दिये । इन दोनों का परिचय आगे पृ० २७ में दे चुका हूँ ।
तीसरा तर्क वे यह देते हैं कि मेड़ता से उपाध्याय पुण्यकलश मुनि जयरंग, चारित्रचंद आदि द्वारा एक पत्र सूरत में विराजित खरतरगच्छ के पूज्य श्री जिनचंद्रसूरि को भेजा गया । उसमें आनंदघनजी के सम्बन्ध . में निम्नलिखित उल्लेख मिलता है
"पं० सुगनचंद्र अष्टसहस्री लाभानंद आगइ भणइ छइ । अर्द्धरइ टाइ भणी । घणुं खुसी हुई भणावइ छइ " |
यह पत्र नाहटाजी को आगम प्रभाकर मुनि पुण्यविजयजी के पास देखने को मिला था । मुनि पुण्यविजयजी के समस्त पत्रों का संग्रह अहमदाबाद के श्रीलालभाई दलपत भाई ( ला० द० भा० ) संस्कृति विद्यामन्दिर में सुरक्षित हैं, लेकिन नाहटा द्वारा उल्लिखित कोई पत्र
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org