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________________ xxxii बुद्धिसागरसूरिजी ने मारवाड़ के न मान कर गुजरात सौराष्ट्र का मान लिया । किन्तु कापड़ियाजी ने अपने ग्रन्थ में उन्हें गुजरात सौराष्ट्र कान मान्यकर भाषा शास्त्र के आधार पर इस सम्बन्ध में पर्याप्त लम्बा विवेचन किया है । पन्यास गम्भीरविजयजी कापड़ियाजी के गुरु थे और उन्हीं से अर्थ विवेचन करने में पर्याप्त सहाय्य मिला था अतः उनके पूर्वाग्रह वश बुन्देलखण्ड के किसी नगर में आनन्दघनजी का जन्म स्वीकार कर लिया और उनके अनुकरण में रत्नसेनविजयजी आदि ने भी वही बात लिख दी । आनन्दघनजी का दीक्षा नाम लाभानन्द था यह देवचन्दजी, ज्ञानसारजी आदि सभी को स्वीकार्य है पर बुद्धिसागरसूरिजी और कापड़ियाजी ने कहीं लाभविजय और लाभानन्दी लिखा है जो गलत है । शोध प्रबन्ध में आगे लिखा है श्री अगरचन्द नाहटा दूसरा तकँ यह देते हैं कि आनन्दघन का मूलनाम लाभानन्द या लाभानन्द में जो 'आनन्द' नन्दी ( नामान्त पद ) हे वह खरतरगच्छीय चौरासी नन्दियों में पाया जाता है । उनका यह भी कथन है कि उन्नीसवीं शती में खरतरगच्छ में लाभानन्द नामक एक अन्य साधु हो चुके हैं । आशय यह कि खरतरगच्छ के अतिरिक्त अन्यगच्छ में लाभानन्द नाम रखने की परम्परा नहीं रही है । इसी आधार पर उन्होंने आनन्दघन को खरतर - गच्छीय परम्परा का सिद्ध किया है । किन्तु उनका यह तर्क ऐतिहासिक दृष्टि से समुचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 'आनन्द' नामान्त पद का प्रयोग तपागच्छ में भी हुआ है । जैसे चिदानन्द, विजयानन्द आदि । यहाँ मेरा नम्रमत यह है कि नामान्त पद तपगच्छ की नन्दियों में भी है पर प्रयोग जिस गच्छ में अधिक हुआ हो जैसे 'विजय' नामान्त पद दोनों गच्छों में होते हुए भी तपागच्छ में अधिक प्रचलित हो गया । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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