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xxvii कारित लिखा है, मैंने ४५ वर्ष पूर्व शिलालेख भी प्रकाशित किया पर संशोधन अद्यावधि न हआ। आनंदजी कल्याणजी की पेढी की स्थापना श्री देवचंद्रजी महाराज द्वारा हुई इस विषय में मेरे पर्याप्त लिखने पर भी रतिलाल दीपचंद देसाई ने पेढी के इतिहास में संशोधन नहीं किया। शत्रुजयमहात्म्यकर्ता धनेश्वरसूरि का तपागच्छीय लिखना कहां तक उचित है वे 'चार सतोतरे हुआ धनेश्वरसूरि' पाचवींशताब्दी के माने जाते हैं और तपाच्छ सं० १२८५-तेरहवींशती में हुआ है। पद्मसागरसूरिजी ने अपने प्रवचन में समयसुन्दरजी को हीरविजयसूरि शिष्य बतलाया है।
यह सब प्रसंगोपात लिखने के पश्चात् अब श्री मोतीचंद गिरधर कापडिया का श्री आनंदघनजी ना पदो हाथ में लेता हूँ। इसमें श्री चिदानंदजी का नाम कपूरचंद्र के स्थान में कपूरविजय अनेकशः लिखा है। आनंदघन चौबीसी के २२ वें स्तवन में शंका की है जो अनुचित है। पृ० ७८ में ज्ञानविमलसूरि के परिचय में खरतरगच्छीय कवि ज्ञानानंदजी कृत ज्ञानविलास और संयमतरंग नामक पदसंग्रहों को ज्ञान विमलसूरि की रचना लिखी है। आगे चलकर पृ० १०३ में आनंदघनजी के समकालीन-ज्ञानविमलसूरिजी को उपर्युक्त दोनों पदसंग्रह रचनाएँ बताते हुए पूरा, पद प्रकाशित किया है जिसमें "निधिसंयम ज्ञानानंद अनुभव" शब्दों द्वारा अपने गुरु व दादागुरु का नाम “निधिचारित्र" और अपना नाम ज्ञानानंद स्पष्ट बतलाया है पृ० ५३३ में फिर ज्ञानविलास को ज्ञानविमलसूरि कृत बतलाते हुए उसमें विहाग राग का एक पद उद्धृत किया है जिसकी अंतिम गाथा इस प्रकार है
इन कारण जगमत पख छांडी, निधिचारित्र लहाय । ज्ञानानंद निज भावे निरखत, जग पाखंड लहाय ॥५॥
चिदानंदजी ( कपूरचंद ) और ज्ञानानंदजी (प्रेमचंद ) दोनों खरतरगच्छ परम्परा में होते हुए इन्हें गलत समझा और गलत परिचय
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