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नाम "चिदानन्द' प्रसिद्ध किया और उनके गुरु भाई ने अपना नाम ज्ञानानंद प्रसिद्ध किया। दूसरे चिदानंदजी ( फकीरचंद चैतन्य - सागर ) ने भी पावापुरी में 'चिदानंद' नाम पाकर उसी का उपयोग किया। वर्तमान के सर्वोच्च महापुरुष श्री भद्रमुनिजी ने भी आत्मा की उस घनीभूत अवस्था में पहुँचते अपना नाम छोड़ कर सहजानंदघन असंप्रदायी नाम प्रसिद्ध किया। यह प्रथा खरतरगच्छ में ही पायी जाती है न कि तपागच्छ में। यह भी आनंदघनजी खरतरगच्छ में दीक्षित होने का प्रमाण है।
महापुरुष तपागच्छ में ही हुए इस हठाग्रह के कारण जो तपागच्छ की उत्पत्ति से पूर्व हो गए उन्हें भी अन्य गच्छ में होना स्वीकार्य नहीं । कदाग्रही धर्मसागरोपाध्याय जैसे विद्वान ने नवाङ्गो वृत्तिकारक श्री अभयदेवसूरिजी को भी खरतरगच्छ परंपरा से अलग करने का असफल दुराग्रह किया। अभी संवेगरंगशाला के (मूल) पत्राकार संस्करण पर भी उन्हें तपागच्छीय लिखा। श्री जिनकुशलसूरिजी के शिष्य विनयप्रभोपाध्याय की रचना नरवर्मचरित्र में प्रशस्ति ही प्रकाशित नहीं की जो कि सं० १४११-१२ में खंभात में रचित है इन्हीं की अतिप्रसिद्ध रचना गौतमरास का रचयिता उदयवंत या विजयभद्र लिख कर भ्रामकता पैदा की है रासकीगाथा ४३ में स्पष्टतः ‘विणयपहु उवज्झाय थुणिज्जई" द्वारा विनयप्रभोपाध्याय का उल्लेख है। सं० १०७० में दिगम्बराचार्य अमितगति रचित धर्म परीक्षा ग्रन्थ जो १९४१ पद्यों में है-उसके २१४ पद्यों में हेर फेर कर करके १४७४ पद्यों में १२५० पद्य ज्यों के त्यों नकल करने का जघन्य कार्य किया है फिर भी उसमें अनेक बातें दिगम्बर मान्यता की रह गई है, उस ग्रन्थ को धर्मसागरोपाध्याय के शिष्य पद्मसागरजी ने अपनी कृति गर्व पूर्वक बतलाई है गुरु धर्म-. सागर ने प्रवचन परीक्षा बनाई और मैंने धर्मपरीक्षा रची। शत्रुजय तलहटी स्थित सतीवाव जो बीकानेर के सेठ सतीदास द्वारा सं० १६५७ में बनाई गई थी उसे सभी इतिहासों में अहमदाबाद के सेठ शांतिदास
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