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खरतरगच्छ के जिनहर्षगणि भी पंच महाव्रत धारी थे वे भी आनंदघनजी-सत्यविजयजी के समकालीन थे, गुजरात में अधिक विचरे और स्वर्गवास भी पाटण में हुआ । समयसुन्दरोपाध्याय और उनकी शिष्य परम्परा में विनयचंद्र कवि भी अहमदाबाद में विचरे थे । समकालीन विद्वानों में जिनहर्षजी आदि के अतिरिक्त समयसुन्दर, हर्षनंदन, जिनराजसूरि, गुणविनय, सहजकोति श्रीवल्लभ, जयरंग, लक्ष्मीवल्लभ, आदि का नाम भूल कर की बुद्धिसागरसूरिजी ने नहीं लिखा है । जब कि जैनेतर समकालीन व्यक्तियों के नाम दिए हैं। आनंदघनजी के चौबीसी, बहुत्री के संबंध में हजारों पृष्ठ इस शताब्दी में प्रकाशित हुए पर उनके सम्बन्ध में जो अभिव्यक्ति हुई वह यह कि जो भी महापुरुष हुए वे गुजरात सोरठ और तपागच्छ में ही हुए हैं । इस हठाग्रह के कारण असत्य कल्पनाएं और गलत धारणाओं को परम्परा ही चल पड़ी । समयसुन्दरजी, देवचंदजी, आनंदघनजी आदि के सम्बन्ध में यही बातें हैं उनके राजस्थान - मारवाड़ के होते हुए भी जब तक ऐतिहासिक प्रमाण न मिले गुजरात के लिखते गए । जब साचोर, बीकानेर और मेड़ता के प्रमाण सामने आ गए तब उन्हें सत्य ग्रहण आवश्यक हो गया ।
उपनाम रखने की परम्परा हरिभद्रसूरिजी से चली आती है उन्होंने अपनी कृतियों में "भव विरह" शब्द का प्रयोग किया है । श्री उद्योतनसूरि ने अपनी सुप्रसिद्ध रचना 'कुवलयमाला' में अपना उपनाम "दाक्षिण्य चिह्न" लिखा है । श्रीजिनकुशलसूरिजी के शिष्य विनयप्रभोध्याय ने बोहिलाभ / बोधिलाभ शब्द प्रयुक्त किया है । लक्ष्मीवल्लभ ने 'राज कवि' और जिनहर्षगणि ने अनेकशः “जसराज " नाम भी प्रयोग किया है । श्री आनंदघनजी की दीक्षा नाम लाभानंद था पर उन्हें जब आत्मानुभूति की अवस्था घनीभूत हो गई तब अपना योग नाम "आनंदघन" रखा है और एक आध कृति के अतिरिक्त इसी नाम का प्रयोग किया है। कपूरचंदजी ने अपना
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