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xxiv मानते हैं और उनके समुदाय के साधु दोनों गच्छ की शोभा बढ़ ते हैं । उनके प्रशिष्य उ० श्री लब्धिमुनिजी के उदार विद्यादान के सम्बन्ध में स्वयं गुरुदेव लिखते हैं-"चाहे कोइ किसी भी मत के हो, पढावे सब को हर्षित हो १ समय ले चाहे जो जितने, पढे साधु-साध्वी गृही कितने" ( सहजानंद सुधा पृ० ३३ ) विद्यादान देने में तथा मुस्लिम सम्राटों को प्रतिबोध देने में विद्वच्छिरोमणि महान् प्रभावक श्री जिनप्रभसूरिजी महाराज का नाम सर्वोपरि है। सूर, कबीर और मीरां आदि की भाँति पदों का निर्माण सर्व प्राचीन खरतरगच्छ में ही मिलेगा। तीर्थंकर भक्ति में भी चौबीसी आदि स्तवन साहित्य एवं सज्झाय आदि में प्रचुर साहित्य उपलब्ध है। आनंदघन, ज्ञानसार, चिदानंद बहुत्तरी आदि पदों की परम्परा भी खरतरगच्छ में ही प्रचलित थी जिनरंगसूरि बहुतरी में ७२ पद्य हैं। सुकवि बनारसीदास भी खरतरगच्छीय ही थे जिनके दिगम्बर आध्यात्मिक ग्रन्थों से प्रभावित होकर दिगम्बर में तेरापंथ धारा चल निकली। वे जौनपुर से आगरा आये और वह धारा मुलतान तक जा पहुँची वहाँ के खरतर. गच्छीय श्रावकगण भी उसी अध्यात्म रस प्रवाह में सराबोर हो गये। वहाँ चातुर्मास करने वाले सभी मुनिजन आध्यात्मिक साहित्य निर्माण करने लगे श्री धर्ममन्दिरजी ने सं० १७२५ में पाटण में मुनिपति चरित्र रच कर मुलतान के चौमासों में दयादीपिका, प्रबोध चिंतामणि-मोह विवेक रास, परमात्मप्रकाश चौपाई आत्मपद प्रकाश आदि रचनाएं सं० १७४०-४२ में निर्मित की है। सुमतिरंगजी का प्रबोध-चिन्तामणि रास-ज्ञानकला चौपाई की भी सं० १७२२ में मुलतान में रचना की है। रंगविलास कृत अध्यात्म कल्पद्रुम रास सं० १७७७ में रचित है। इन सभी कृतियों में वहां के नवलखा भणशाली, संखवाल आदि श्रावकों का नामोल्लेख है श्रीमद् देवचंद्रजी महाराज का प्रचुर आध्यात्मिक साहित्य है जो मरोट-मुलतान आदि से प्रारंभ हुआ है। उनकी आगमसार, द्रव्य प्रकाश आदि अनेक रचनाएं प्रसिद्ध हैं।
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