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परिणाम था। यति-श्रीपूज्यों के शैथिल्यवश सर्वाधिक ह ास हुआ सुविहित खरतरगच्छ को। राजस्थान स्थली प्रदेश, मेवाड़, पंजाब, गुजरात, उत्तर प्रदेशादि में सर्वत्र श्याम घटाएँ व्याप्त हुई पर महान् जैनाचार्यों, क्रियोद्धारक त्यागी वर्ग के प्रभाव से आज श्वेताम्बर सुविहित परम्परा की हासोन्मुखता न्यून हुई, गत दो शताब्दियों में तपागच्छ का उत्कर्ष प्रशंसनीय रहा।
खरतरगच्छ परम्परा की सर्वांगीण सेवाएँ, ज्ञान भण्डारों की स्थापना तीर्थोद्धार आदि के साथ-साथ वे औदार्यपूर्ण कार्य थे जिनका कोई मुकाबला नहीं। श्री जिनप्रभसूरिज़ी ने हर्षपुर गच्छीय मलधारी आचार्य राजशेखर को न्याय के उत्कृष्ट ग्रन्थ श्रीधरकृत न्याय-कन्दली का अध्ययन कराया, वे अपनो न्याय कंदली टीका में उल्लेख करते हैं। रुद्रपल्लीयगच्छ के संघतिलकसूरि को विद्याभ्यास कराके आचार्य पद पर अभिषिक्त किया था। नागेन्द्रगच्छीय मल्लिषेणसूरि को स्याद्वादमंजरी तथा भैरवपद्मावती कल्प की रचना में जिनप्रभसूरिजी ने सहयोग दिया।
जैनेतर ग्रन्थों पर जितनी जैन टीकाएँ बनी, अधिकांश खरतर गच्छ की हैं। अन्य गच्छीय साधुओं को विद्यादान में श्रीमद् देवचंद्रजी महाराज भी इसी प्रकार ज्ञानदान में अग्रणी और गच्छ-सम्प्रदाय के आग्रह रहित थे। कवियण ने लिखा है कि चौरासी गच्छ के साधु इनसे विद्यादान लेने आते किसी को इनकार या प्रमाद नहीं करते क्योंकि विद्यादान से अधिक कोई दान नहीं। तप गच्छ के श्री जिनविजयजी, उत्तमविजयजी और विवेकविजयजी को बड़े प्रेम पूर्वक महामाष्य, भगवतीसूत्र, आदि आगम और अनेक प्रकरणादि ग्रन्थों का अभ्यास कराया और शास्त्र वाचन की आज्ञा दी थी। यह जन रासमाला आदि ग्रन्थों से प्रमाणित है खरतरगच्छ विभूषण महान् प्रतापी श्री मोहनलालजी महाराज को दोनों गच्छ वाले अपना
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