________________
XX1
महापुरुष महाविदेह में केवली अवस्था में विचरते हैं और ज्ञानियों की कृपा से सब कुछ ज्ञात होने पर भी बम्बई में उनके महाप्रयाण से चार मास पूर्व मेरे द्वारा पूछनेपर रूपउदय निवास में वे केवल इतना ही कहकर रुक गये कि उनका जन्म व महाप्रयाण भी मेड़ता में ही हुआ था। एक ओसवाल सेठ के चार पुत्रों में तृतीय पुत्र थे। मेरी जिज्ञासा गच्छ, गुरू और अन्य जानकारी प्राप्त करने की थी पर उन्होंने कहास्वयं आनंदघनजी ने ही अपने को इस विषय में निर्लेप रखा, तो और अधिक बतलाना उचित नहीं ।
जब यह स्पष्ट है कि हमें श्री आनंदघनजी को सम्प्रदायवाद में नहीं लाना है फिर भी उपाध्याय श्री यशोविजयजी जैसे महापुरुष के सम्पर्क में आकर अष्टपदी निर्माण एक गुणग्राहकता का और सौहार्द का आदर्श मानते हुए आनंदधन बाबा की अपूर्व जीवनी के संबंध में खरतरगच्छ के प्राचीन इतिहास अन्वेषण की भावना जागृत हुई। और मेरे अन्वेषण में जो आया वह यहाँ विस्तार से लिखता हूँ श्रीमद् ज्ञानसागरजी ने गुजरात में प्रसिद्ध कहावत का उल्लेख करते हुए लिखा है कि आनंदघन टंकशाली, जिनराजसूरि बाबा अवध्यवचनी, देवचंदजी गटरपटरिया, ( एक पूर्व का ज्ञान आगे-पीछे कथन भरा पड़ा है ) यशोविजयजजी टान र दुनरिया (न्यायशास्त्र का अथाह ज्ञान-आपही थापे आपही उथापे ) मोहनविजयजी लटकाला उपाधियों से अलंकृत है । गुजरात में प्रचलित कहावत के अनुसार श्रीमद् आनंदघनजी अधिकतर राजस्थान में ही विचरे और मेड़ता उनका प्रधान क्षेत्र था। आनंदघनजी के वचन एकदम खरे टंकशाली हैं। यशोविजयजी का पूर्व जीवन वाराणसी आगरा और बाद में गुजरात राजस्थान आदि में बीता। देवचंद्रजी ने अपने जीवन का पूर्वाद्ध राजस्थान में और उत्तरार्द्ध गुजरात में बिताया। मोहनविजयजी की रचना रसीली और लटकेदार है पर ज्ञानसारजी ने उनके चंदरास की रास की समालोचना में चार सौ से ऊपर दोहे लिखे हैं।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org