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जहाँ आनंदधनजी खरतरगच्छ में हुए इसके सम्बन्ध में मुनि श्री कृपाचंदजी (सं०१९७२ से आचार्य श्री जिनकृपाचंदसूरि) द्वारा मेड़ता में उनके वृद्धावस्था में आकर जिस उपाश्रय में रहे वह खरत र गच्छ का उपाश्रय था, उनका स्तूप भी विद्यमान था, उनकी परम्परा के यतिजन भी विद्यमान थे इसके सिवा वे और क्या कहते यदि उनसे इसके सम्बन्ध में और पूछा जाता तो शोध करवायी जाती। वे-तो इतिहास शोधक नहीं थे, आगम व जैन दर्शन के उच्च कोटि के विद्वान थे तीस बत्तीस वर्ष केवल शास्त्राभ्यास किया था। सं-१९१३ में जन्मे थे और पुराने यतिजनों के सम्पर्क में आये हुए थे। लाखों की सम्पत्ति त्यागकर, संघ के सुपुर्द कर क्रियोद्धार किया था नागपुर में क्रियोद्धार कर वर्षों बाद १९५७ में बीकानेर आकर फिर १९८४ से १९८७ तक बीकानेर रहे उसी समय हमें उनका विराजना हमारे मकान में होने से हमें सत्संग का सौभाग्य मिला था और धार्मिक अभ्यास, इतिहास और साहित्यान्वेषण कार्य प्रारंभ हुआ था। पादरा से वकील मोहनलाल हीमचंद (६८ वर्षीय ) व उनके सुपुत्र मणिलाल पादराकर से भी बीकानेर आनेपर घनिष्ट सम्बन्ध हुआ था। श्री आनंदघनजी महाराज जब सम्प्रदायवाद से ऊपर उठ गये थे तब उन्हें बुद्धिसागरसूरिजी की भाँति सम्प्रदायवाद में लाने के लिए अपनी धारणानुसार कल्पना सृष्टि करके सभी तपागच्छीय विद्वानों के इर्दगिर्द परिचय देकर लिखना और प्रमाणित करने का कार्य उसी कहावत को चरितार्थ करता है कि एक अप्रमाणित बात को सौ वार प्रस्तुत करने पर वह सत्य सी प्रतिभासित होने लगती है वही श्रीमद् आनंदघनजी के सम्बन्ध में हुआ। मेरे जन्म से पहले की बात है उपरोक्त प्रकाशनों को देखकर भी इतने वर्ष इस गहराई में नहीं गया क्योंकि वे सम्प्रदायवाद से ऊँचे उठे हुए महान् योगी थे। अन्तिम आत्मानुभवी विशिष्ट ज्ञानी गुरूदेव श्री सहजानंदघनजी (भद्रमुनि ) महाराज से ज्ञात हुआ कि श्रीमद् आनंदघनजी, श्रीमद् देवचंद्रजी व श्रीमद् राजचंद्रजी तीनों
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