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xix मार्ग लेवाने बदले तेओ पोताना विचार प्रमाणे आनंदघनजी केवा होवा जोइए बात पर लक्ष्य आपी चरित्र निरूपण कर्य छे, अने धणी खरी जग्याए जाणे चरित्र-लेखक बनावो बन्या ते वखते हाजर होय अने अभिप्रायो सांभल्या होय अथवा बातो नजर जोइ होय एवी एकान्तिक भाषा मां लेख लख्यो छे; पृथक्करण करवानी तेम ने रुचि न होवा ने लीधे बहु बातो अब्यवस्थित पणे दाखल थई गई छे, अव्यव. स्थित अभिप्रायो नो एकत्र समूह करवानी पद्धति ने बदले जरा विशेष संभाल भरी तपास चलाववा मां आवीहोत....
उपयुक्त अभिप्राय से मैं सहमत हूँ। अब कापड़ियाजी के ग्रन्थ पर विचार करते हैं। आपने पन्यासजी श्री गंभीरविजयजी जिनसे पदों के अर्थ करने में बड़ा सहयोग मिला-द्वारा श्रीमद् की जन्मभूमि पूर्वाग्रह युक्त बुन्देलखण्ड-जहां के पं० गंभीरविजयजी स्वयं थे-प्रान्त में मानने में सहमति दी है। यद्यपि कापड़ियाजी ने श्रीमद् के गुजरातसौराष्ट्र में जन्मे होने का भाषा विज्ञान द्वारा विस्तृत आलोचना कर राजस्थानी का पलड़ा भारी किया है। श्रीमद् का नाम लाभानंद स्वीकार है, और यशोविजयजी के तथा सत्यविजयजी के साथ संबन्ध चिरकाल बताकर अन्तिम चौमासा पालनपुर बताते हुए 'तेमनीदीक्षा तपगच्छ में थईहती लिखा है। फुटनोट में लिखा है किकृपाचंदजी तेमने खरतरगच्छ मां थएल होवा नुं जणावे छे अने तेना चेलाओ ( गोरजीओ) हाल हैयात छे एम कहे छे. तपगच्छ मां आ महात्मा थयेला होवानां घणा कारणो जणाय छे ते आप्या छे. खरतरगच्छ संबंधी आधारभूत हकीकत मलशे तो विचारवा मां कोई प्रकार नो आग्रह नथी. हजु सूधी कृपाचंदजी ना कथन सिवाय बीजें एक पण साधन खरतर गच्छना अनुमान ने मजबूत करे तेवं जणायं नथी. गच्छ माटे आनंदधनजी नेज आग्रह न होतो तो पछी तेमना संबंधमां लेख मां आग्रह न ज होवो जोइए, तो पण हकीकत तो जे "सत्य समजाणी होय तेज प्रकट करवी जोइए वि० क."
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