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xvii नहीं है। आनंदघनजी के समय महाराजा करणसिंह थे जिसे मुगल इतिहास में करण भुरटिया 'लिखा है । वे सुबह-सुबह तुर्क का मुंह नहीं देखते और दरबारो मुसलमानों को भी दाढी मुंडाये रखना पड़ता था। कोई केन्द्र का अधिकारी मुसलमान आता तो उसे भुरट ( काँटे ) के मार्ग से लाया जाता और खारा पानी पिलाया जाता।
श्री बुद्धिसागरसूरिजी ने आबू की गुफाओं, मंडलाचल की गुफाएं, सिद्धाचल, गिरनार, ईडर, तारंगा आदि में विचरने की बात लिखी है। उसका लिखित प्रमाण कोई नहीं मिलता। पृ० १५४ में जोधपुर के अपुत्रिये राजा के आनंदघनजी की अंतःकरण से सेवा द्वारा पुत्र प्राप्रि होना लिखा है इस विषय में प्रमाणाभाव में कुछ नहीं कहा जा सकता।
श्री आत्मारामजी महाराज ने लिखा है कि पन्यास श्री सत्यविजयजी ने आनंदघनजी के साथ कितने ही वर्ष वन में वास कर के चारित्र पालन किया था, इस चर्याका विस्तृत वर्णन सारा निराधार है। सत्यविजय निर्वाणरास में तत्कलीन वर्णन है जिसमें आनंदघनजी का कहीं नाम भी नहीं है। जिनहर्ष गणि के रचित रास के अनुसार सत्यविजयजी लाडनूं ( सवालक्ष देश ) के दूगड़ वीरचंद की भार्या वीरमदे के इकलौते पुत्र थे और १४ वर्ष की उम्र में अर्थात् १६७७ में वैराग्यवासित हो कर दीक्षित हुए थे। माता पिता अमूर्तिपूजक-लौंका मत के थे पर पुत्र के वैराग्यकी दृढता को देखकर लौंका पूज्य को बुलाकर दीक्षा लेने का कहा। पर वैरागी शिवराज को हितकारी जिन पूजा की मान्यता वाले सुविहित मार्ग में चारित्र लेने का आग्रह देख कर विजयसिंहसूरिजी महाराज को बुलाकर धूमधाम से दीक्षा दिलाई। रास में उनके एकाकी विहार का लिखा है न कि आनंदघनजी के साथ। जिनहर्षजी के अनुसार उसके छट्ठ-छठ्ठ पारणा करते हुए मेवाड़ उदयपुर, मारवाड़ मेड़ता, नागोर हो कर १७२९ में सोजत में पन्यास पद प्राप्त किया फिर सादड़ी, गुजरात पाटण, अहमदाबाद
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