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गया मुनि ने योगसिद्धि से ५२ सिक्के पूर्ण करे बादशाह ने हरखावत को शाहपद दिया। मुनि दर्शनविजय त्रिपुटी महाराज ने जैन परम्परानो इतिहास में इस बात का उल्लेख करते हुए आनंदधनजी को 'ते तपागच्छनाहता' लिखा है ।
७ एक वार किसी गाँव के निर्धन वणिक के यहाँ श्रीमद् ठहरे थे । उसे अर्थचिन्ता में रुदन करते देखकर उन्होंने लोहा मंगाया । वणिक ने इकसेरिया वाट लाकर दिया | श्रीमद् प्रातः काल विहार कर गये और उनके स्थान पर लोहे के सेर को सोने का पाया ।
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श्रीमद् यशोविजयजी द्वारा स्वर्ण-सिद्धि की वांछा के लिए जाने पर लघु शंका निवृत्यर्थं बैठने की, सती होने वाली सेठानी अध्यात्मिक उपदेश देने पर तथा किसी राजा की दो पुत्रियों को रुदन करते उपदेश द्वारा शोक दूर करने आदि पर भी श्रीमद् के चारित्र पर दोषारोपण और दोनों हाथ अग्नि पर रखने और विश्वस्त करने आदि कितनी ही किम्वदन्तियों पर विस्तृत आलेखन हुआ है जिसकी समीक्षा अनावश्यक है ।
श्रीमद् की पद रचना के विविध प्रसङ्गो को लेकर तत्सम्वन्धी लोकोक्तियां जैसे पारने के दिन आहार न मिलने, चमत्कार लोभी श्रावकों के तथा जैनेतर जिज्ञासु जन के प्रश्नादि पर भी आचार्य श्री ने काफी विवेचन किया है ।
श्री आत्मारामजी महाराज ने बीसवीं शताब्दी में बने समेतशि खरजी के ढालिया के अनुसार जो परवर्ती अनैतिहासिक बात लिखी है कि आनंदघनजी सत्यविजयजी के लघु-भ्राता थे यह सौ वर्ष पूर्व की कल्पना सृष्टि है - " तेमना लघुभाई लाभानंदजी, ते पिण क्रिया उद्धार जी" । वास्तव में आनंदघनजी सत्यविजयजी से अवस्था में बड़े थे और न उनका किसी भी प्रकार से पारस्परिक पारिवारिक संबन्ध
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