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२४. श्री महावीर जिन स्तवन-१
(राग-धन्याश्री) वोर जिनेश्वर चरणे लागू, वीर पणू ते मांगू रे। मिथ्या मोह तिमिर भय भाग्यूं; जीत नगारु वाग्यूं रे ।। वीर० ॥१॥ छउमत्थ वीर्य लेश्या संगे, अभिसंधिज मति अंगे रे। सूछम थूल क्रिया ने रंगे, योगी थयो उमंगे रे ॥ वीर० ॥२॥ असंख्य प्रदेशे वोर्य असंख्ये, योग असंखित कंखे रे। पुद्गल गण तिणे ल्ये सु विशेष, यथाशक्ति मति लेखे रे ॥ वीर० ॥३॥
उत्कृष्टे वीर्य निवेशे; जोग क्रिया नवि पेसे रे। जोग तणो ध्र वता ने लेसे, आतम शक्ति न खेसे रे॥ वोर० ॥४॥
काम वीर्य वशे जिम भोगी; तिम आतम थयो भोगी रे। शूरपणे आतम उपयोगो, थाइ तेह अयोगी रे ॥ वीर० ॥५॥
वीरपणुं ते आतम ठाणे, जाण्यं तुमची वाणे रे। धयान विन्नाणे शक्ति प्रमाणे, निज ध्र वपद पहिचाणे रे । वीर० ॥ ६॥ आलंबन साधन जे त्यागे, पर परिणति ने भागे रे। अक्षय दर्शन ज्ञान विरागे, 'आनंदघन' प्रभु जागे रे । वीर० ॥७॥ महावीर जिन स्तवन के शब्दार्थ
१ तिमिर = अंधकार । भाग्यू = भग गया, दूर हो गया। वाग्यू = बज रहा है। छ उमत्थ = छद्मस्थ । अभिसंधिज= आत्म शुद्धि की अभिलाषा, योगाभिजनित, विशेष प्रयत्न से उत्पन्न । सूछम = सूक्ष्म । थूल = स्थल। कंखेकांक्षा, अभिलाषा करते हैं। पेसे= प्रवेश करती है। खेसे = स्खलित होती है, डिगती हैं, खिसकती है। विनाणे = विज्ञान । तुमची = आपकी । विरागे-वैराग्य।
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