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श्री महावीर जिन स्तवन-२
( अभिनंदन जिन दरिसण तरसीए-ए राग ) वीर जिनेसर परमेश्वर जयो, जगजीवन जिन भूप। अनुभव मित्ते रे चित्ते हित धरी, दाख्यं तास स्वरूप ॥१॥
जेह अगोचर मानस वचन ने, तेह अतींद्रिय रूप । अनुभव मित्ते रे व्यक्ति शक्ति सुं, भाख्यु तास स्वरूप ॥२॥
नय निक्षेपे रे जेह न जाणिये, नवि जिहां प्रसरे प्रमाण । शुद्ध स्वरूपे रे ते ब्रह्म दाखवे, केवल अनुभव भाण ॥३॥ अलख अगोचर अनुभव अर्थ नो, कोण कहि जाणे रे भेद । सहज विशुद्धये रे अनुभव वयण जे, शास्त्र ते सगलां रे खेद ॥४॥ दिशि देखाडी रे शाख सवि रहे, न लहे अगोचर बात । कारज साधक बाधक रहित जे, अनुभव मित्त विख्यात ॥५॥ अहो चतुराई रे अनुभव मित्तनी, अहो तस प्रीत प्रतीत । अंतरजामी स्वामी समीप ते, राखी मित्र सुं रीत ॥६॥ अनुभव संगे रे रंगे प्रभु मिल्या, सफल फल्या सवि काज। निज पद संपद जे ते अनुभवे, 'आनंदधन' महाराज ॥७॥
२ दाख्यु = कहा गया है। तास-उसका। जेह=जो। अगोचर = नहीं देखा जा सके । तेह = उनका । व्यकित = व्यक्त किया हुआ, बताया हुआ। भाख्यु = कहा गया। भाण=सूरज । सघला=सभी । समीप = पास, निकट । देखाड़ी=दिखलाई। मित्त=मित्र । फल्यां = फलित हुए। सवि = सब ।
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