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श्री पार्वं जिन स्तवन-३ ( स्वामी सीमंधरा वीनती-ए राग )
प्रणमुं पद पंकज पाश्र्व ना, जस वासना अगम अनूप रे। मोह्यो मन मधुकर जेह थी, पामे निज शुद्ध स्वरूप रे ॥१॥
पंक कलंक शंका नहीं, नहीं खेदादिक दु:ख दोष रे। त्रिविध अवंचक योग थी, लहे अध्यातम सुख पोष रे ॥२॥ दुर्दशा दूरे टले, भजे मुदिता मैत्रो भाव रे। वरतै निज चित्त मध्यस्थता, करुणामय शुद्ध स्वभाव रे ॥३॥
निज स्वभाव स्थिर कर धरे, न करे पुद्गलनी खेंच रे। साक्षी हुई वरते सदा, न कदा परभाव प्रपंच रे॥४॥
सहज दशा निश्चय जगे, उत्तम अनुपम रस रंग रे। ' राचे नहीं परभाव सुं, निज भाव सुं रंग अभंग रे॥५॥
निज गुण सब निज में लखे, न चखे परगुण नी रेख रे। क्षीर नीर विवरो करे, ए अनुभव हंस सुं पेख रे ॥६॥ निर्विकल्प ध्येय अनुभवे, अनुभव अनुभवनी प्रीत रे। और न कबहुँ लखी शके, 'आनंदघन' प्रीत प्रतीत रे ॥७॥
३ पदपंकज, वरण कमल । जस= जिसकी। वासना = सुगंध । अगम = अगम्य है। अनूप = अनूठी है। मन-मधुकर = पनरूपी भँवरा । पंक = कीचड़। दुरंदशा = बुरीअवस्था; मिथ्यात्व । मुदिता = प्रसन्नता । खंच = खींचातानी। राचे= घुलमिल जाना, मस्त होना विवरोकरै = निर्णय करना। पेख = देखना। प्रतीत-विश्वास ।
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