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२३. श्री पाश्र्व जिन स्तवन-१
( राग-सारग देशी-रसियानी ) ध्र व पद रामी हो स्वामी माहरा, निःकामी गुणराय । सुज्ञानी। निज गुण कामी हो पामी तुं धणी, ध्र व आरामी हो थाय । सु० ॥१॥ सर्व व्यापी कहे सर्व जाणगपणे; पर परिणमन स्वरूप । सु० । पर रूपे करि तत्वपणुं नहीं, स्व सत्ता चिद्रूप ॥ सु० ॥२॥ ज्ञेय अनेके हो ज्ञान अनेकता, जल भाजन रवि जेम । सु० । द्रव्य एकत्व पणे गुण एकता, निजपद रमता हो खेम ॥ सु० ॥३॥ पर क्षेत्रे गत ज्ञेय ने जाणवे, पर क्षेत्रे थयुं ज्ञान । सु० । अस्ति पणुं क्षेत्रे तुमे कह्यो, निमलता गुणमान ॥ सु० ॥४॥ ज्ञेय विनाशे हो ज्ञान विनश्वरु, काल प्रमाणे रे थाय । सु०। स्वकाले करी स्वसता सदा, ते पर रीते न जाय । सु० ॥५॥ परभावे करि परता पामता, स्व सत्ता थिर ठाण । सु० । आत्म चतुष्कमयो परमां नहीं, तो किम सहु नो रे जाण ॥ सु० ॥६।। अगुरुलबु निज गुण ने देखतां, द्रव्य सकल देखंत । सु० । साधारण गुण नी साधर्म्यता, दर्पण जल ने दृष्टान्त ।। सु० ॥७॥ श्री पारस जिन पारस रस समो, पण इहां पारस नांहि । सु० । पूरण रसीओ हो निजगुण परसनो, 'आनंदधन' मुझ मांहि । सु० ॥८॥ पार्श्वनाथ जिन स्तवन (१) के शब्दार्थ
ध्रुव = अटल। पद = स्थान। रामी = रमण करने वाला। जाणग पणे = ज्ञातापन में, ज्ञायक भाव से । पर परणमन= अन्य में परिणाम करने वाले। चिद्रूप =ज्ञान रूप। खेम = क्षेम, आनंद। विनश्वरू= नाशमान । आत्मचतुष्कमयी = अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य रूप । समो= समान, बराबर। परसनो= स्पर्श का ।
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