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________________ अतः आप वास्तव में ही मनोजयी एवं आनन्दघन हैं। प्रभो ! अब कृपा करके मेरे मन को भी कुन्थु-जिन-चरणों में तन्मय स्थिर कर दोजिये, क्योंकि आपकी महिमा अचिन्त्य है। आप अपने योगबल से सब कुछ करने में समर्थ हैं। नाथ ! इस दास पर यदि आपकी कृपा-नजर उतर जाय और तदनुसार मेरा अस्थिर मन साध्य में स्थिर हो जाय, तो मैं अनुभव-प्रमाण से भी मनोजय की सत्य-प्रतीति करके कृतकृत्य हो जाऊँ। भगवन् ! अब तो मुझे आपका ही सहारा है । अतः कृपा कीजिये। परम कृपालु सन्त आनन्दघनजी ने अपने अन्तर्ज्ञान से मुमुक्षु और सत्संगी के पारस्परिक संवाद को जान लिया और मुमुक्षु की पात्रतानुसार मन के सम्बन्ध में उसके प्रत्येक प्रश्न को हल किया। बाद अपनी योग-शक्ति से अपने चैतन्य-प्रकाश को ब्रह्मरंन्ध्र से फैलाकर मुमुक्षु के ब्रह्मरन्ध्र में संचारित किया, जिसके फलस्वरुप जैसे दीये दीया होता है, वैसे ही मुमुक्षु की चैतन्य-ज्योति जगमगाने लग गई, और उसमें मुमुक्षु का मन वैसा आकर्षित होकर स्थिर हो गया जैसे कि दीपक की लौ के प्रति पतंगा। बाद सन्त आनन्दघनजी ने भव्य-जीवों के उपकार के हेतु उपरोक्त संवाद के सारांश को पद्य में गुम्फित करके पत्रारूढ़ कर लिया। १४. ] Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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